कभी-कभी अधूरे सपने भी होते हैं पूरे…!
यह मेरी पहली उज़्बेकिस्तान यात्रा थी। उस देश की यात्रा जहां आंदीजान, फरगना से प्रसिद्ध मुगल बादशाह अनेक पड़ाव के बाद 1526 ईस्वी में समरकंद होते हुए अफगानिस्तान से पानीपत, भारत आया था। मेरी यह यात्रा सिर्फ उज़्बेकिस्तान की ही यात्रा नहीं थी, बल्कि एम ए के दौरान पढ़े हुए मध्यकालीन इतिहास की भी यात्रा थी।
डॉ रश्मि चौधरी
आज मैं उल्फ़त जी को जो हमारी मित्र हैं, उन्हें याद करते हुए आप सबसे कुछ बातें साझा करना चाह रही हूँ.. “ अच्छा लगा आपके देश आ गए…लेकिन पता नहीं, अब दुबारा कब आएंगे। लेकिन हम जरूर आएंगे…आपके देश की स्मृतियों को अपने साथ लेकर जा रही हूँ! कभी लगता है कि हम जो चीज सोचते हैं या सपना देखते हैं, वह कभी – न – कभी आपके जीवन में जरूर पूरा होता हैं! हमने भी 1990 के दशक में अपने पढ़ाई के दौरान मध्यकाल को पढ़ते समय बाबर के बारे में बहुत कुछ पढ़ा था और मैं बाबर के अदभ्य उत्साह और जुझारू व्यक्तित्व को देखकर चकित भी हो जाया करती थी ऐसा लगता था कि इतिहास में बहुत कम ऐसे योद्धा होते है–जो कुछ कर गुजरते है और इतिहास के पन्नों में अपना नाम दर्ज कराते है!”
मेरी फ्लाइट 19 अक्टूबर 2018 के सुबह की थी। एक तो इंटरनेशनल फ्लाइट और अकेले ही यात्रा करनी थी। थोड़ा – सा डर भी लग रहा था…। मुझे एयरपोर्ट छोड़ने पांच प्रियजन आये थे – गणपत, नूर, प्रियंका अजय और प्रदीप। अच्छा लगता हैं जब आपको इतने लोग इक्कठे लेने या छोड़ने आये। फ्लाइट में सभी उज़्बेक लग रहे थे जो अपनी भाषा उज़्बेकी में बातें कर रहे थे। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मैं चुपचाप बैठकर उन्हें देख सुन रही थी।
करीब पांच घण्टे की फ्लाइट थी। अब प्लेन लैंड होने ही वाली थी…मैं सोच ही रही थी कि बाहर कैसे और क्या करना होगा । तभी मेरे सामने वाली सीट पर एक व्यक्ति ने अपने मोबाइल से अंग्रेजी में बात की। फिर क्या था, मैं उसके पीछे हो ली। उसने भी मुझे वॉच कर लिया। वह जिधर जाये, उसके पीछे चल रही थी । वह रुका और हमसे पूछा , “Are you first time visiting to Tashkent ?” (क्या आप पहली बार ताशकंद जा रही हैं?)
मैंने धीरे से अपना सर हिला दिया..और उन्होंने मेरे immigration कराने और सामान आदि लेने में पूरी मदद की…फिर एयरपोर्ट से बाहर निकलने पर सामने दिखे… उल्फ़त जी और देवेन्द्र…!
एक नया देश, और विस्तृत फैला हुआ सुंदर देश!
बाबुर का देश ! वहां बाबर को बाबुर कहते हैं।
टैक्सी में बैठकर गेस्ट हाउस की तरफ चल पड़े।
ताशकंद स्टेट इंस्टिट्यूट ऑफ ओरिएण्टल स्टडीज के गेस्ट हाउस में हमारे ठहरने की व्यवस्था थी। शाम के लगभग चार बजे हम गेस्ट हाउस पहुंचे। गेस्ट हाउस के ऊपर यूनिवर्सिटी के छात्रों का हॉस्टल था। रिसेप्शन पर एक खूब गोरी-सी महिला बैठी हुई थी…। उसने मुझे ध्यान से देखा और मुस्कुराई…उज़्बेकी भाषा में ही कुछ बोली जो मुझे समझ में नहीं आया। लेकिन मैंने भी मुस्कुरा दिया! वहां पहुंचकर मुझे अच्छा लग रहा था और सबसे ज्यादा खुशी इस बात की थी कि मेरे पूरे सप्ताह भर की यात्रा में ताशकंद के साथ-साथ कई शहरों को भी देखने का उत्साह था जिसमें आंदिजान, फरगना, समरकंद, बुखारा आदि। ये शहर मेरी स्मृति में इतनी दूर तक बसे हुए थे कि अपने स्नातक शिक्षा के दौरान मैं बाबर के साथ-साथ इन शहरों को भी घूमा करती थी।
तब तक मैंने बाबरनामा नहीं पढ़ा था क्योंकि उस समय उसकी मूल प्रति फारसी में ही उपलब्ध थी। लेकिन हमारे मध्यकालीन इतिहास के शिक्षक प्रो.सौकत अली मध्यकाल कुछ ऐसा पढ़ाते थे जैसे हमें फरगना ही पंहुचा दिए हो…हम सभी उनके साथ-साथ पूरे 45 मिनट की क्लास में काबुल से लेकर आंदीजान, फरगना, समरकंद, बुखारा और फिर खैबर का दर्रा पार करते हुए हिंदुकुश पर्वत को लांघते हुए हिंदुस्तान में आकर मुग़ल वंश की नींव डालना–ये सभी मुझे हतप्रभ कर देता था!
ताशकंद उज़्बेकिस्तान की राजधानी हैं। यह मध्य एशिया के शानदार शहरों में शामिल हैं…यह एक आधुनिक इस्लामिक देश हैं, पर लोगों के व्यवहार में आपको कहीं भी इसका अहसास नहीं होगा! हमने गौर किया कि यहाँ की महिलाएं पूरी तरह स्वतंत्र हैं, उनके रहन-सहन और लिबास पर पश्चिमी सभ्यता का असर दिखाई दे रहा था। यहाँ कई म्यूज़ियम और मीनारें हैं जो देखने लायक हैं। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी यह शहर आकर्षित करता हैं। 13वीं सदी के बाद तैमूर लंग का साम्राज्य यहां रहा । उनकी विशाल मूर्तियां कई शहरों में दिखाई दे जाएगी। लेकिन, 19वीं शताब्दी के आते- आते यह सोवियत रूस का हिस्सा बन गया और काफी लंबे समय के बाद 1991 में संवैधानिक गणराज्य बनकर विश्व के सामने आया। इस्लाम करीमोव जी इसके पहले राष्ट्रपति बने और देश को तरक्की के रास्ते पर ले आए।
यहाँ के लोग संस्कृति और परंपरा को बड़ा ही महत्व देते हैं और खासकर, उन्हें भारतीयों से बड़ा ही गहरा लगाव है। यहां के लोग खाने-पीने के बड़े ही शौकीन होते हैं। इनके भोजन में ईरानी, अरबी, भारतीय, रुसी, चीनी, कोरियाई आदि व्यंजनों की झलक मिलती है, पर घरों में शुद्ध उज़्बेक खाना खाते है। बिना मांस के कोई व्यंजन होता ही नहीं है। भेड़ शायद बहुत खाते है, ताकि शरीर में गर्मी बनी रहे! इसलिए थोड़ी कठिनाई मुझे हुई।

ताशकंद में हमें इतना अपनापन मिलेगा, ये मेरी कल्पना से परे था। भारतीय मूल के उद्योगपति अशोक तिवारी जी और उनके परिवार से मिलकर बहुत अच्छा लगा। ताशकंद की पहली शाम उनके यहां जाना और कुछ अन्य भारतीय मित्रों के साथ रात का खाना खाना, उनकी मां के साथ देर तक बातें करना…सब एक अच्छा अनुभव था!
ताशकंद स्टेट इंस्टिट्यूट ऑफ ओरिएंटल स्टडीज के तमाम शिक्षक जिसमें लोला जी, मुखैया जी और सिराजुद्दीनजी सभी से मिलकर एक नयी ऊर्जा मिली। कुछ के नाम मैं भूल रही हूं, पर पुरानी शिक्षकों में तमारा जी का उत्साह देखते बनता था। कुछ नाम मुझे याद नहीं आ रहे है, पर उनकी स्मृतियां मन में दर्ज है!
वहां के छात्रों में मुकरुद्दीन,अज़िज और सर्वनाज़ आज भी हमसे जुड़े हुए हैं। सर्वनाज़ का हमें प्यार से साहिबा कहना दिल को छुता हैं। इसी प्रकार, मुकरुद्दीन और आज़िज के साथ आंदिजान से लेकर फरगना तक की सड़कों पर घूमना बहुत ही खास था।
इस यात्रा को और भी दिलचस्प बातों से यादगार बनाया हमारे गाड़ी चालक वाहिद अका जो भाई के नाम से भी जाने जाते हैं। ऐसा लग रहा था जैसे वे अपने किसी घर के लोगों को लेकर बर्फ की गुफाओं के रास्ते से सैर कराने निकले हो और यहाँ के लोग इस ठण्ड के मौसम में कैसे-कैसे कठिनाइयों का सामना करते हैं… ऐसे अनेकों किस्से सुनाएं। इस यात्रा में हमलोगों ने आंदिजान में बाबर का स्मारक, फरगना में स्टेट म्यूज़ियम, वहां के छात्रों के साथ फरगना स्टेट यूनिवर्सिटी के परिसर में घूमना एक सपने की तरह लग रहा था। कभी बाबर भी ऐसे ही घूमा होगा, पैदल; कभी घोड़े पर! अपने सहयोगियों, मित्रों के साथ; जैसे कि उस दिन हमलोग फरगना की सड़कों पर घूम रहे थे। लग रहा था कि स्मृतियों के साथ – साथ इतिहास चल रहा है!
इस यात्रा में सबसे खास बात यह रही कि हमें उज़्बेकिस्तान के एक गांव को देखने का मौका मिला। भारत जैसे ही हरे – भरे खेतों से घिरा गांव! खेतों के बीच से गांव की तरफ जाते हुए ऐसा लग रहा था जैसे मैं पटना से देवेन्द्र के गांव अहिरौली (बक्सर) जा रही हूं! अज़ीज का गांव जिसका नाम बेशारीक है जो फरगना के अंतर्गत आता हैं…। हमारे भारतीय गांव की तरह ही दिखाई पड़ रहा था लेकिन वहां हर गांव के घर के दरवाजे ऊँचे-ऊँचे लोहे के बने हुए थे। ये घरों को बहुत ही गहरे रंगों से सजाते है और नीचे पूरे फर्श पर कालीन बिछा कर रखते है।अज़ीज के घर के आंगन में सतालू का पेड़ दिखाई पड़ा जिसमें काफी फल लगे हुए थे। अनार भी खूब बड़े – बड़े फले हुए थे जिसके बारे में *बाबर *ने लिखा है। घर के अंदर मेहमान के लिये अलग से बैठका होता हैं जहाँ बीच में काफी बड़ा गोलनुमा तख़्त सजा हुआ रहता हैं। घर के लोगों का व्यवहार बहुत ही आत्मीय लगा। आजिज की मां ने उपहार देकर हमें ऐसे विदा किया जैसे घर आाई अपनी बेटी को मां करती है!
लोला जी के साथ बुलेट ट्रेन द्वारा समरकंद की यात्रा बहुत ही उत्साहजनक थी। रास्ते भर सभी जगह की विशेष टिप्पणी और समरकंद का रेगिस्तान उनकी नजर से देखने का मौका मिला। समरकंद स्टेशन पर उतरते ही एक बुज़ुर्ग प्रोफ़ेसर और उनकी स्कॉलर ने हमारा स्वागत किया। उनके साथ हमने दिन का उज़्बेकी खाना खाया। एक महत्वपूर्ण बात यह की समरकंद की रोटियां बहुत ही प्रसिद्ध हैं जो स्पंजी और थोड़ी हेल्दी होती हैं। एक रोटी की मात्रा इतनी की मेरा पेट तो आधी से भी कम रोटी में भर जाता था। शायद ये रोटियां फौज के लिए बनाई जाती होगी कि सामरिक अभियान में आराम से पांच-सात दिन चल जाए! कहते है कि समरकंद की रोटियां तो पंद्रह – पंद्रह दिनों तक खराब नहीं होती है।
इंस्टीट्यूट के दो और छात्र हमलोग के करीब आए… संजर और बेक। ये दोनों ताशकंद स्टेट इंस्टिट्यूट ऑफ ओरिएंटल स्टडीज में इतिहास के छात्र हैं उनके साथ ताशकंद शहर के महत्वपूर्ण स्मारक स्थल, म्यूज़ियम आदि को ऐतिहासिक दृष्टि से देखने में मदद मिली। मैं बार-बार संजर से उनके देश के बारे में सवाल पूछती…मैं सबकुछ जानना चाहती थी और वो मुझसे… भारत के बारें में जानने के लिए सवालों की झड़ी लगा देता…कई बार हमदोनों एक साथ ही बोल उठते…। मैंने उसकी आँखों में भारत के बारे में जानने की चमक देखी।

ताशकंद की चाय भी बहुत आकर्षित करती हैं…जिसे बहुत ही सुंदर पॉट में सजा कर लाते है और जो होटलों में कम-से-कम 5000 सोम से शुरू होती हैं। सिराजुद्दीन जी के साथ हमने वहां के चौड़ा बाजार में सड़क पर लगाई गई सुंदर पेंटिंग देखी। रास्ते में ही मुकरूद्दिन के साथ पैदल घूमते और थकते हुए भारत के दूसरे प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी का स्मारक स्थल भी देखा जिसे एक बहुत बड़े पार्क में उनकी मूर्ति के साथ बनाया गया हैं। अपने पूर्व प्रधानमंत्री शास्त्री जी को ताशकंद में देखकर अच्छा लगा कि यह शहर उनकी स्मृतियों को आज भी संजोये हुए है!
ताशकंद में भारतीय संस्कृति केंद्र में राजदूत विनोद कुमार जी, काउंसलर शिप्रा घोष जी, संस्कृति केंद्र के निदेशक प्रो. चंद्रशेखर जी से मुलाकात निस्संदेह एक उत्साहजनक भेंट रही।कल्चर सेंटर के कार्यक्रम में भारतीय कला और संस्कृति की झलक देखने को मिली।
वहां की एक सबसे खास बात यह हैं कि शादी या निकाह के बाद नया विवाहित जोड़ा अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के साथ किसी एक महत्वपूर्ण स्मारक स्थल पर पहुँच कर अपनी तस्वीर खिंचवाते हैं जो उनके लिए एक यादगार स्मृति होती है। मुझे ये देखकर अच्छा लगा।
उल्फत जी के गांव जो अब ताशकंद शहर का ही हिस्सा है, जाकर अपने भारत के गांव के घर की याद आ गई…वही परंपरा,संस्कृति और सम्मान,घर के लोगों का आत्मीय प्रेम देखकर मुझे बाबर की आत्मकथा बाबरनामा की निम्न पंक्तियां याद आ गई…
“ भारत अपना सा लगता हैं…भारत के गांव हमारे आंदीजान जैसे हैं यहाँ के लोग सम्मानीय हैं…मैं भारत को अपनाना चाहता हूँ…अपना घर बनाना चाहता हूँ, लेकिन मैं भूल नहीं पाता हूँ अपने देश के फल और ड्राई फ्रूट्स, तरबूज, खरबूज, अनार,आलू बुखारा, अंजीर, बादाम, अखरोट, काली किशमिश आदि जो बहुत ही रसीले और स्वादिष्ट होते हैं!…”

हमारे लिए यह यात्रा और भी स्मरणीय रहेगा क्योंकि ताशकंद स्टेट इंस्टिट्यूट ऑफ ओरिएंटल स्टडीज में इतिहास की समझ #Understanding History# पर एक सेमिनार का आयोजन भी हुआ जिसमें प्रसिद्ध विद्वान प्रो. उलफ्त मुहिबा ने कुंवर सिंह के बहाने मध्यकालीन बाबुरी साहित्य पर एक व्याख्यान दिया जिसे बाद में भारत की एक संस्था रंगश्री ने “कुंवर सिंह स्मृति 2018” व्याख्यान के रूप में स्वीकार कर लिया।
अपने भारत आने के एक दिन पहले की रात हम दोनों ताशकंद राज्य प्राच्य विद्या संस्थान और होटल उज़्बेकिस्तान के बीच लोगों से बेखबर, बहुत देर तक ठंडी हवाओं के साथ सड़क पर भटकते रहे। राजकपूर के नाम पर बने रेस्टुरेंट में खाना खाए और सड़क से सटे पगडण्डी पर बिखरे सर्द पत्तों से टकराते उदास मन गेस्ट हाउस लौटे। गेस्ट हाउस के बैठक में सर्वनाज़ हमारा इंतज़ार करते मिली। उसने गले लगकर हमें विदा दी, इस आशा के साथ कि उससे मिलने हम जल्दी ही उसके गाँव आएंगे…”
दक्षिण उज़्बेकिस्तान का एक गांव – Shakhrisabz Nagar अर्थात , कास्का दरिया!
मन बार – बार कर रहा था और सोच भी रही थी कि बाबुर के देश में जो भी छूट रहा है, उसे अपनी आँखों में आत्मसात कर लूं ताकि स्मृतियों में हमेशा के लिए कैद हो जाय!
भारत लौट आने के बाद आज भी वहां की यादें स्मृतियों में बार-बार दस्तक देती रहती हैं…। हमने जो कुछ देखा- जिया-महसूस किया; एक सपना.. जो कई दशको से संजोया था वह पूरा हुआ!!
अंत में, मैं प्रसिद्ध हिंदी अखबार “जनसत्ता” (2019) में प्रकाशित कविता उचल्या की निम्नलिखित पंक्तियां का उल्लेख कर अपनी ताशकंद यात्रा को यही समाप्त करना चाहूंगी जो दोनों देशों को संस्कृति के स्तर पर एक साथ खड़ा करता है:
“कहती है उचल्या-
बादलों में रवानगी है जो
यक्ष की प्रेमिका का संदेश लेकर
चले जाते है हिमालय की तरफ
बनकर दूत
मैं क्या करूँ उचल्या ?
न धरती को जान पाया, न आसमान को
न हवा को, न पानी को
न आग को
क्या यह आग ही है जो धूप बनकर चमक रही है
इस दुनिया में और इस दुनिया के बाहर
समुंदर के अंतिम छोर तक?
मैं असहाय ! कुछ न कर सका उचल्या!!
समझते-समझते न समझ पाया उस कुम्हार का खेल
जो गढ़ रहा है आज भी मूर्तियां
तुम्हारे आंदीजान से लेकर मेरे सिंधु के कछार तक
इस दुनिया से उस दुनिया के होने का
कुछ तो जरूर है जो है हमारे अंदर,
हमारे बाहर…शायद यह सबकुछ होने का।”
(लेखिका एक जानी मानी इतिहासकार और वर्तमान में ‘रंगश्री’ नामक संस्था की उपाध्यक्षा हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकों में महत्वपूर्ण हैं:
‘1857 के वीर सेनानी कुंवर सिंह’ और ‘भारतीय राष्ट्रवाद का निम्नवर्गीय प्रसंग’।)