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मॉरिशस डायरीः

मॉरिशस डायरीः

भारतीय भाषाओ की एक छोटी-सी दुनिया है मॉरिशस। पढिह लिखिह कउनो भाषा, बतियहीह भोजपुरी में। भारत से दूर, एक दूसरे भारत से कुछ मुलाकातें…


डॉ देवेंद्र चौबे

सुखद लग रहा है, मारिशस के बारे में कुछ बातें आप सबसे शेयर करने जा रहा हूं ! मॉरिशस के बारे में कहा जाता है कि यह भारत के बाहर एक दूसरा भारत है! यह शब्द सुनकर ही अच्छा लग रहा है। इस धरती पर एक देश ऐसा है जो स्वर्ग जैसा है, भारत की परंपराओं को जीता है, उसकी संस्कृति में रंगा हुआ है। कभी प्रसिद्ध लेखक मार्क ट्वेन ने कहा था कि ‘‘ ईश्वर ने मारिशस बनाया था और फिर उसमें से स्वर्ग की रचना की थी।‘‘

सच में, पहली बार जब मैं एयर मॉरीशस सर शिवसागर रामगुलाम एयरपोर्ट पर उतर रहा था, तब नीचे समुद्र और समुद्र में तेजी से जाती सफेद रंग की एक बोट को देखकर अच्छा लगा। महात्मा गांधी संस्थान के प्रो. गुलशन सुखलाल मुझे एयरपोर्ट लेने आये थे। बाद में, भारतीय हाई कमीशन में शिक्षा सचिव के रूप में कार्यरत प्रसिद्ध भारतीय लेखक जयप्रकाश कर्दम ने खबर भिजवायी थी कि वे कोई और व्यवस्था करेंगे। आजकल बहुत व्यस्त थे। पर ज्योंहि हम एयरपोर्ट से थोड़ी दूर गये होंगे कि कर्दम जी का फोन आ गया कि उनके घर चाय पीते हुए हमें आगे जाना है। मॉरिशस में कर्दम जी की एक-दो चीजों ने मुझे आकर्षित किया था। वह हिंदी के एक चर्चित दलित लेखक है। प्रतिबद्धता उनके व्यक्तित्व में समायी हुई है। भारत में मॉरिशस आने से संबंधित जो मुश्किलें थी, उसे उन्होंने बहुत ही बारीकी से सुलझाया। थोड़ी देर में हम उनके घर पहुंच गये। अभी हम चाय पीने जा ही रहे थे कि विश्व हिंदी सचिवालय के तत्कालीन उप महासचिव राजेन्द्र प्रसाद मिश्र चर्चित हिंदी प्रेमी नारायण कुमार के साथ आ गये।

महात्मा गांधी संस्थान
आज सुबह हमारे लिए काफी चुनौतीपूर्ण थी। महात्मा गांधी संस्थान की हिंदी विभागाघ्यक्ष प्रो. राजरानी गोबिन ने कहा कि हमें एम.जी.आई. के डायरेक्टर से मिलने के बाद टेक (शिक्षा विभाग) जाना चाहिए। भारतीय भाषाओं के अध्ययन के लिए महात्मा गांधी संस्थान एक बड़ा केंद्र है। यहा भारतीय भाषाओं की एक छोटी-सी दुनिया दिखलाई देती है। लोगों से मिलकर लगता है कि आपकी मुलाकात भारतीय भाषाओं के अध्यापकों से हो रही है। आम तौर पर सभी भोजपुरी में बातचीत कर रहे थे। बीच में फ्रेंच और अंग्रेजी के शब्दों का भी प्रयोग हो रहा था; इसलिए कई भाषाविद यहा की ज़बान को क्रियाल भी कहते हैं। सुचिता रामदीन, अरविंद बिसेसर, राज हीरामन, संध्या नवासे, माधुरी रामधारी आदि न जाने कितने विद्वानों से मिलते-मिलते लगता है कि हम भारत के ही किसी संस्थान में आ गये है।
मॉरिशस की एक बात मुझे परेशान कर रही थी। मैंने महसूस किया कि यह देश अस्मिता और वर्चस्व जताने में जितनी दिलचस्पी रखता है यदि कुछ को छोड़ दिया जाए तो उतना करने में नहीं। सब काम लोग आराम से करते हैं, पर जहां तक कृषि-संस्कृति का सवाल है, वह प्रभावित करता है। आज भी कई लोग ऐसे हैं जो सुबह चार बजे जगकर पहले खेतों में काम करने जाते हैं। फिर अपने काम पर। अध्यात्म से अधिक, पूजा-पाठ में दिलचस्पी है; हर घर में बड़ा न सही, एक छोटा मंदिर जरूर है।

बासु पंडित जी
बासु पंडितजी से मिलना एक सुखद संयोग था। विश्व हिंदी सचिवालय के मिश्रा जी से फोन पर बात हुई और उन्होंने उनका नाम बताया। उनसे बातचीत करके मॉरिशस में मंदिर और पूजापाठ की एक नई दुनिया का पता चला। वे एक पर्यटक की तरह अपनी पत्नी के साथ भ्रमण के लिए माॅरिशस आये थे और एक मंदिर के व्यवस्थापक उनके संस्कृत के उच्चारण से इतना प्रभावित हुए कि अपने मंदिर का पुजारी बनने का प्रस्ताव दे दिया। वेतन इतन आकर्षक था कि मना नहीं कर पाये और तिरूपति मंदिर की तरफ से एक साल की वर्क परमिट लेकर यहां पूजा कराने आ गये। अब कई वर्षों से यहीं पर है तथा उनकी पत्नी अब एमजीआई में अध्ययन करती है। यहां पुजारी को शुद्ध संस्कृत बोलना जरूरी है। भक्त उनकी विद्वता और वाचन कला से मंदिर आते हैं। चढ़ावा चढ़ाते हैं। मंदिर मॉरिशस में एक बड़े व्यवसाय की तरह है तथा लोगों की आमदनी का जरिया भी कि आप अपने मंदिर को सार्वजनिक कर दें तथा सरकार से भी अनुदान लें और जनता को भी धर्म ओर संस्कृति के मार्ग पर ले जाए। वहा के लोग मानते है कि इससे समाज में समरसता बनी रहती है।

पोर्ट लुई का बंदरगाह, निर्माण और एकाकीपन
पिछली बार रश्मि और विश्व भोजपुरी सम्मेलन में आये मित्रों के साथ यहां आया था। उस समय, समय कब समाप्त हो गया, पता ही नहीं चला। इस बार समय भारी पड़ रहा था। मुझे करीब डेढ़ घण्टे बिताने थे।
एकाकीपन। अपनी भाषा में बात करने वाला कोई नहीं। विचारों की अनंत शृंखलाएँ। एकाकीपन की कोई भाषा नहीं होती! अकेले सुनसान सड़कों पर भागे जा रहा है। किसी से बात करने का मन है। पर, सामने कोई नहीं दीखता। शाम होते ही सब अपने अपने घरों की ओर लौट जाते हैं। बच जाता है एक खालीपन, शांत कमरा, नारियल के पेड़ों के बीच से भागती हवा में … क्या करें। किससे बातें करें। कोई नहीं है।

इंडियन डायस्पोरा सेंटर
मुझे जल्दी तैयार होना था क्योंकि इंडियन डायस्पोरा सेंटर का कार्यक्रम 9.45 से था। भोजपुरी विभाग के जय गणेश पाण्डेय मुझे लेकर जाने वाले थे। मातृदिवस के नाम पर इंडियन डायस्पोरा सेंटर का आयोजित कार्यक्रम पूरा राजनीतिक था। हवन और गायत्री मंत्र के उच्चारण के बाद राष्ट्रपति अनिरुद्ध जगन्नाथ के आने पर कार्यक्रम की शुरुआत हुई। मुझे लोक गायकों के गीत अच्छे लगे। कुछ-एक में राजनीतिज्ञों की महिमा का बखान था पर मुझे वह गीत अच्छा लगा जिसे मॉरिशस के मशहूर कलाकार ज्ञानमयी पन्नलाल ने गाया –

डॉ देवेंद्र चौबे

पढ़िही लिखिह कउनो भाषा बतियही भोजपुरी में … …
शाम के अंधकार में कार से खाना खाकर लौटते हुए मैं इस प्रक्रिया में अपनी भूमिका तलाश रहा था। सड़क के दोनों ओर खड़े गन्ने के हरे पौधे मॉरिशस के उसी उत्पीड़ित समाज की तस्वीरें दिखला रहे थे जिसे अभिमन्यु अनत ने ‘लाल पसीना’ में दिखाया है। संदर सड़कों पर दौड़ती हुई गाड़ियों को देखकर लग रहा था कि भारत के मजदूर भाइयों ने कितनी मुश्किलों से इस पथरीली जमीन को समतल और खेती लायक बनाया होगा। राजधानी पोर्ट लुई की पथरीली सड़कों पर चलते हुए लगता है कि एक तरह से हम रास्ते पर नहीं जीवित इतिहास पर चल रहे होते हैं। जहाँ न जाने कितनी स्मृतियों का दर्द दफ़न है। सड़क के किनारे बिछाया गया एक-एक पत्थर एक-एक मजदूर के श्रम और उनकी इस आकांक्षा का प्रतीक लगता है कि एक दिन हमारे बच्चों इन्हीं पर चलकर स्कूल जायेंगे; सड़कों की तरह दफ्तर में बैठकर फाइलों पर कलम चलायेंगे तथा उनकी भी गाड़ियां तेज रफ्तार से इन सड़कों पर दौड़ेंगी। आज जब मैं गुलशन मुखलाल, विनय गुदारी, रामदेव धुरंधर के साथ उनकी कारों में बैठकर यात्रा करता हूँ तो लगता है कि एक दृढ़ता उनके बाद कारों में शर्तबंद प्रथा के तहत मॉरिशस आये उन अनगिनत मजदूर भाइयों के सपने साकार हो गये हैं। उनके अंदर एक अजीब प्रकार के गर्व का भाव उठ रहा होगा कि हमने जो सोचकर मेहनत किया, धरती को सींचा आज उसका फल हमारी संतानों को मिल रहा है। धरती सोना उगल रही है, वह सोना तो उन्हें नहीं मिला जिसकी लालच में अंग्रेज एजेंट इन्हें यहां लाये थे कि पत्थर हटाओगे तो सोना निकलेगा, पर आज उनकी संपन्न जिंदगी को देखकर लगता है कि इस समाज ने अपना सोना पा लिया है और उनके चेहरे पर जो चमक और दमक है, कहीं-न-कहीं उनके पूर्वजों के ख़्वाबों की हकीकत है।

( लेखक हिंदी के एक चर्चित शिक्षाविद और वर्तमान में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के भारतीय भाषा केंद्र में प्रोफेसर हैं। )

Tags: इंडियन डायस्पोरा सेंटरडॉ देवेंद्र चौबेपोर्ट लुई का बंदरगाहमहात्मा गांधी संस्थानमॉरिशस डायरीः
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