माधोपुर का घर एक अपेक्षाकृत समृद्ध, खेतिहर पृष्ठभूमि वाला यह अपर कास्ट हिन्दू परिवार के तीन पीढ़ियाँ, खास कर विकास के दौर में, अलग-अलग पेशें में जाने और विस्थापन की वजह से सोच, सामाजिक-आर्थिक, जीवन-शैली और मन-मिज़ाज में आए बदलाव को बयां करता है।
उत्तर बिहार के किसी भी गाँव की तरह एक गाँव हैः माधोपुर। इस गाँव के एक अपेक्षाकृत समृद्ध और शिक्षित परिवार की तीन पीढ़ियों के सोच, जीवन-शैली और मन-मिज़ाज में आये बदलाव, सामाजिक-आर्थिक विकास के दौर में परिवार के सदस्यों के अलग-अलग पेशें में जाने से हो रहे स्थानांतरण और विस्थापन आदि की कहानी इस उपन्यास का मुख्य कथानक है। निस्संदेह, खेतिहर पृष्ठभूमि वाला यह अपर कास्ट हिन्दू परिवार तीन पीढ़ियों के अपने सफ़र में बहुत सारे सामाजिक आर्थिक और जीवन-शैली सम्बन्धी बदलावों के बीच से गुजरा है। यह वही दौर है, जब देश में ऐसे बदलाव से असंख्य परिवार और लोग प्रभावित हो रहे हैं। इस मायने में ‘माधोपुर का घर’ सिर्फ़ ‘बाबा और दादी’ का घर नहीं है, वह ऐसी पृष्ठभूमि के असंख्य घरों जैसा है, जहां खेतिहर पृष्ठभूमि से सरकारी या ग़ैर सरकारी नौकरी में जा रहे लोगों की दुनिया में तेज़ी से बदलाव आया। इसका प्रभाव घरों की उन महिलाओं पर कुछ कम नहीं पड़ा जो ग्रामीण सामंती पृष्ठभूमि से आई थीं और अब उनके पतियों और बच्चों के प्रोफेशन में आये बदलाव ने उनके सामने जीवन-शैली का नया परिवेश रच दिया। घर में लोगों की रुचियाँ भी बदलीं। उनके जीने का अंदाज भी बदला।
‘माधोपुर का घर’ त्रिपुरारि शरण का पहला उपन्यास है। इससे पहले उन्होंने फ़िल्म समीक्षाएँ लिखी हैं। पटकथा लेखन किया और फ़िल्म निर्माण से जुड़े रहे। वैसे पेशे के तौर पर वह एक प्रशासनिक अधिकारी रहे हैं। कुछ ही साल पहले वह बिहार जैसे एक बड़े राज्य के के मुख्य सचिव पद से सेवानिवृत्त हुए। इससे पहले एक दौर में वह दूरदर्शन के महानिदेशक और पुणे फ़िल्म संस्थान के निदेशक जैसे महत्वपूर्ण पदों पर भी काम कर चुके हैं। वह स्वयं बिहार के एक गाँव से आते है। आज की बिल्कुल नयी मध्यवर्गीय पीढ़ी की तरह वह संपूर्ण शहरी नहीं हैं। गाँव और ग्रामीण जीवन को देखा ही नहीं, जिया भी है। इस तरह त्रिपुरारि शरण के पास जीवन, समाज और शासन का पर्याप्त अनुभव है।
‘माधोपुर के घर’ के परिवार की सबसे पुरानी जीवित-पीढ़ी के सदस्य हैं-दादा। दादा यानी पिता जी (जिन्हें उपन्यास में बाबा कहकर संबोधित किया गया है) के पिता जी। वह माधोपुर से 30 किमी दूर एक फ़ार्महाउस-नुमा क्लीनिक-सह निवास में रहते हैं। 25 एकड़ के क्षेत्रफल में बना है यह परिसर। वैक्सीन इंस्पेक्टर से डॉक्टर बन बैठे दादा जी की पत्नी यानी दादी (उपन्यास में जिन्हें दादी कहा गया है, उनकी सास) गाँव पर ही रहती हैं। डॉक्टर साहब का चरित्र अपने आप में अनोखा है। उनके अंदर कुछ उदार सामंती मूल्य हैं। आसपास के लोगों की मदद करते हैं। वह सिर्फ़ अपने कुछ सहायक-सहायिकाओं के साथ परिवार के बग़ैर जीवन काटने के अभ्यस्त हो चुके हैं। गंभीर रूप से बीमार पड़ने पर वह अपने बेटे के सानिध्य में आते हैं, जहां उनके जीवन का अंत होता है।
इस उपन्यास के सभी प्रमुख चरित्र, ख़ासतौर पर बाबा और दादी, बिल्कुल अलग मन-मिज़ाज के दिलचस्प चरित्र हैं। कहानी वहाँ से शुरु होती है जब बाबा हज़ारीबाग़ में हेडमास्टर थे। इन सबकी यानी माधोपुर की कहानी सुनाने का सिलसिला उनकी पालतू प्यारी कुतिया लोरा शुरू करती है।
समकालीन हिंदी कथा साहित्य, ख़ासकर उपन्यासों, का मैं नियमित पाठक नहीं हूँ। मुझे याद नहीं, इससे पहले कभी मैंने ऐसा कोई हिंदी उपन्यास पढ़ा हो, जिसमें श्वान कथावाचक बनकर पेश हुए हों। श्वानों के बोध, उनके आचरण और आदतों पर इतना प्रामाणिक अनुभव और जानकारी शायद ही हिंदी की किसी अन्य साहित्यिक कृति में सामने आई हो! लैब्राडोर, अलसेशियन और डाबरमैन जैसे श्वानों के बारे मैंने पहले किसी हिंदी साहित्यिक कृति में नहीं पढ़ा था। निजी तौर मैं श्वान-प्रेमी व्यक्ति नहीं हूँ पर उनसे चिढता भी नहीं हूँ। उनसे सिर्फ़ डरता हूँ। जब वे मुझे डराते नहीं तो बहुत अच्छे लगने लगते हैं। कई बार कुत्तों से मेरा सहज संवाद भी हुआ है। मेरे शब्दों और संकेतों पर उनकी प्रतिक्रियाएँ फ़ौरन मिली हैं। कभी ख़ास आवाज़ में तो कभी ख़ास शारीरिक हरकत में।
त्रिपुरारि शरण ने उपन्यास में एक जगह बाबा की कुतिया लोरा के एक ट्रेन सफ़र का जो वर्णन किया है, वह कुत्तों के मन और मनोभाव को समझने वाला कोई व्यक्ति ही कर सकता था। ट्रेन में बाबा के साथ सफर पर निकली कम उम्र की लोरा के मन का आख्यान सुनियेः ‘मैंने कोई फ़ालतू हरकत नहीं की और बिना वजह कोई आवाज़ नहीं निकाली जिससे बाबा के सहयात्रियों को कोई आपत्ति हो सके!’ लोरा के पास समझ है और भावना भी है। इसके बग़ैर वह उपन्यास का एक दिलचस्प चरित्र कैसे हो पाती! इस उपन्यास की यह एक बड़ी उपलब्धि है। उपन्यासकार ने श्वानों को अपने कथानक का न सिर्फ़ चरित्र अपितु कथा सुनाने वाले चरित्र के रूप में पेश किया है।
बाबा और दादी उपन्यास की मुख्य कथा के मुख्य पात्र हैं। दादी अपेक्षाकृत समृद्ध सामंती परिवार से आई हैं। उनके मायके वाले रमनपुर के बड़े ज़मींदार थे। परमानेन्ट सेटिलमेंट के बाद के दौर में उनके प्रभाव का और विस्तार हुआ था। दादी की डायरी से ली कथा को भी एक श्वान ही सुनाता है। लेकिन बाबा और दादी के रिश्तों में लगभग नियमित उदासीनता और एक हद तक खटास का एक कारण बाबा का श्वान-प्रेम भी है। समय-समय पर मिले सहायकों और नौकरों के बावजूद घर में दादी को इसके लिए खटना भी पड़ता रहा है। सच तो ये है कि दादी को अपने बाल बच्चों के साथ रहना ज़्यादा पसंद है।
बाबा और दादी के बच्चे बड़े होकर अलग-अलग महकमों में जाते हैं। सभी प्रखर और अपने-अपने क्षेत्र में कामयाब हैं।तीनों बेटे अच्छे पदों पर हैं। तीपू बड़ा आईएएस अधिकारी बन चुका है। उमंग भी बड़ा अफ़सर है जो छात्र जीवन के दौरान एक बार जेल भी जा चुका है। वह इमरजेंसी का दौर था। परिवार में सब राजीखुशी हैं। लेकिन बाबा और दादी के एक अन्य अधिकारी बेटे की असामयिक मौत से पूरा परिवार स्तब्ध रह जाता है और लंबे समय तक विषाद में रहता है। बाबा और दादी के बच्चों के बच्चे भी बड़े हो रहे हैं। कभी दादी, कभी दादा और यदाकदा दोनों अपने अफसर-बच्चों के यहाँ आते-जाते रहते हैं। लेकिन बाबा और दादी का ज़्यादा वक्त माधोपुर के घर में ही बीतता है। उनके बीच श्वान हमेशा एक विषय बने रहते हैं। उन पर बात हो या नहीं! पर उनके पालतू श्वान उनकी ज़िंदगी और रिश्तों में हमेशा किसी न किसी रूप में उपस्थित नज़र आते हैं। तीपू अपने पिता की तरह श्वान प्रेमी है। यही कारण है कि माधोपुर के घर का श्वान हमेशा तीपू के साथ उसके अड्डे पर जाने को आतुर रहता है।
दादी को अपने बच्चों और उनके बच्चों के बीच अच्छा लगता है। वे छुट्टियाँ बिताने माधोपुर आते हैं तो घर खुशियों से भर जाता है और जब वापस जा रहे होते हैं तो बाबा और दादी दोनों उदास हो जाते हैं। ऐसी उदासी और ख़ालीपन का उपन्यास में बहुत मार्मिक चित्रण हुआ हैः ‘विभव और उसके माता-पिता के छुट्टियों से वापस जाने पर बाबा और दादी भी तो थोड़ा उदास हो गये थे। मैंने अपने दरवाज़े पर आने वाले गाँव के लोगों की बातें सुनी तो फिर मुझे लगा कि जैसे हमारा घर ख़ाली हो जाता है उसी तरह अब माधोपुर के ज़्यादातर घर ख़ाली ही रहने लगे हैं।’
विस्थापन और ख़ालीपन का यह वर्णन काफ़ी विस्तारपूर्वक किया गया है। हमारे ग्रामीण भारत की संयुक्त परिवार-व्यवस्था के टूटने के साथ सामाजिक-आर्थिक विकास के नये दौर में लोगों के स्थानांतरण व विस्थापन और परिवार के बुजुर्गों पर पड़ने वाले इसके असर का का सच इस उपन्यास का एक प्रमुख विषय है। लेकिन इस उपन्यास को मनुष्य और श्वान जैसे अद्भुत समाज-प्रेमी जीव के जीवंत रिश्ते की बेहद मार्मिक और अनकही कथा के लिए भी याद किया जाना चाहिए।
![](https://pravasindians.com/wp-content/uploads/2023/08/Urmilesh-pic-jpeg.webp)
उर्मिलेश
उपन्यासकार का नजरिया उन्हीं के शब्दों में
श्वान जैसे जीव जो हमारे बीच, हमारे साथ, हमारे घर में रहते हैं वे हमारे बारे में क्या सोचते हैं- इस काल्पनिक प्रश्न पर हिन्दी उपन्यास की विधा में बहुत कुछ नहीं लिखा गया है। ‘माधोपुर का घर’ लोरा नामक एक श्वान के आख्यान पर और घर की एक वरिष्ठ सदस्या दादी की डायरी पर आधारित उपन्यास है। मनुष्य और जीव के बीच के प्रेम की एक कथा है। हर प्रेम कथा की तरह इसमे भी उल्लास और उमंग के साथ-साथ त्रासदी की भी घटनाएं कहानी को सुवासित करती रहती हैं। लेकिन यह उपन्यास एक प्रेम कथा से आगे भी बहुत कुछ है। एक परिवार की तीन संततियों की दास्तान के साथ-साथ यह उपन्यास अपने समय का एक दस्तावेज भी दर्ज करता है। एक समाजशास्त्रीय रुप-रेखा के अन्तर्गत इतिहास के बदलते रंगों को परखने और पहचानने की कोशिश करता है।
![](https://pravasindians.com/wp-content/uploads/2023/08/WhatsApp-Image-2023-08-06-at-21.46.52-805x1024.webp)
- त्रिपुरारि शरण
जैसे किसी भी लम्बी यात्रा की बनावट छोटे-छोटे कदमों के समूह से ही तय होती है उसी प्रकार इस उपन्यास में दर्ज छोटी-छोटी घटनाएं और मानव व्यवहार का चित्रण इसके कथा संसार की परिधि को तय करते हैं। प्रसिद्ध लेखक असगर वजाहद के शब्दों में ‘माधोपुर का घर’ सच्चाई की ऐसी सरल दास्तान है जो बिना ‘बैसाखियों’ के सहारे सीधे पाठक तक पहुंचती है। आत्मानुभव और एक समाजशास्त्रीय संजीदगी के मेल से तैयार किया गया यह उपन्यास समकालीन बिहार की सच्चाई को भी उभारने का प्रयास करता है।
समय के थपेड़ों द्वारा कैसे गुंजायमान इतिहास के बावजूद बड़ी-बड़ी कोठियां कालांतर में खंडहर मात्र बनकर रह जाती है। जिन आकांक्षाओं से हम तथाकथित घर का निर्माण करते हैं वे किस मुकाम पर पहुंच जाती हैं- ‘घर’ के रुपक का इस्तेमाल करते हुए यह उपन्यास मनुष्य के जीवन के इन आयामों की गहराई से पड़ताल करने की कोशिश करता है।