फिजी में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में शिरकत कर लौटे दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के सह-प्राध्यापक एवं युवा साहित्यकार डा. वेद मित्र शुक्ल, जिन्होंने अपनी सुखद स्मृतियों को साझा किया दैनिक जागरण के मुकेश पांडेय के साथ। पेश है बातचीत के कुछ रोचक अंश…
Q: आपकी नज़र में हिंदी साहित्य का वैश्विक प्रसार क्यों नही हो सका?
Ans: हिंदी साहित्य व उसकी भाषायी शाखाएं जैसे अवधी, भोजपुरी, बुंदेली, ब्रज का साहित्य वैश्विक साहित्य के मुकाबले काफी मजबूत है। इसके लेखक भी प्रखर हैं, लेकिन इसका वैश्विक प्रसार इसलिए नहीं हो पाया क्योंकि अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन समेत विश्व की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद की दृष्टि से हम कमजोर साबित हुए हैं।
विदेशी भाषाओं को छोड़िए! भारतीय भाषाओं तमिल, कन्नड़, मलयालम, उड़िया, बांग्ला आदि में भी हमारे हिंदी साहित्य का अनुवाद कम है। इस पर बुद्धिजीवियों और उत्तर प्रदेश सहित हिंदी बेल्ट की राज्य सरकारों को चिंतन करने की जरूरत है। इसके बावजूद हिन्दी की वर्तमान स्थिति को विश्व में कहीं से भी कमतर नहीं आँका जा सकता है| मैं फ़िजी में 12वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में था जहाँ न केवल भारत के विभिन्न प्रांतों से हिन्दी का प्रतिनिधित्व करने विद्वान और साहित्यकार आए थे बल्कि अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, श्रीलंका, मॉरीशस, सूरीनाम, उज्बेकिस्तान, मलेशिया, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि विदेशों से भी हिंदी के पक्षधर आये थे। हाँ, हिन्दी साहित्य के वैश्विक प्रसार को लेकर आपकी चिंता लाजिमी है पर अभी भी जब हम प्रशांत क्षेत्रों में विश्व हिन्दी सम्मेलन के लिए एकजूट हो रहे हैं ये निश्चित ही एक शुभ संकेत है हालांकि हिन्दी के प्रसार के लिए बहुत कुछ होना अभी शेष है।
Q: आखिर कैसे हिंदी साहित्य विश्व में अपनी पहचान बना सकेगा?
Ans: हिंदी दुनिया भर में सर्वाधिक प्रचलित और बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है। साहित्य की दृष्टि से यह काफी विस्तार लिए हुए है और समृद्ध भी है। ऐसे में हिंदी का वैश्विक प्रसार समय की माँग है। अगर हिंदी खासतौर से लोक भाषाओं के लेखकों के ‘मन में चिंगारी’ होगी तो महान सन्त कवि तुलसीदास जी के रामचरित मानस की तरह वे भी छा जाएंगे।
Q: फिजी में आपका अनुभव कैसा रहा?
Ans: फिजी एक सुंदर देश है। भारत से गए हिंदी भाषियों ने फ़िजीयाई हिंदी विकसित की है। वे अभी भी ऐसे शब्दों का प्रयोग कर रहें हैं जिनको भारत के लोग भूल चुके हैं। फ़िजी में हिंदी भाषा ही नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति और फ़िजीयाई आतिथ्य सत्कार ने हम सबका मन मोह लिया। वहाँ अभी भी जब दो लोग आपस में मिलते हैं तो हम ‘नमस्ते’ और वे ‘बूला’ कहकर एक दूसरे का अभिवादन करते हैं और धन्यवाद को ‘विनाका’ कहते हैं।
Q: विदेश में प्रचलित देशज शब्दों (indigenous words) को किस नज़रिए से देखते हैं?
Ans: देशज शब्द अविश्वसनीय भी है और अविस्मरणीय भी। उसके भाव अद्भुत हैं और कथ्य सामर्थ्य गजब का। मेरा मानना है कि भारतीय बोलियों के शब्द कोष व समानांतर कोष को हमें गंभीरता से लेना चाहिए। फ़िजी में जो हिन्दी बोली जाती है उसमें अपनी अवधी के अनेक शब्द अभी भी ज्यों के त्यों उपयोग में लाए जा रहे हैं। यहीं पर आपको फ़िजी-यात्रा के दौरान हुए एक आप-बीती रोचक प्रसंग बताना चाहूंगा जो विश्व हिन्दी सम्मेलन के आयोजकों द्वारा फ़िजी भ्रमण केे दौरान दिखा। खूबसूरत पोर्ट देनाराऊ मरीना के दुकानदारों से बातचीत के दौरान अपने अवध में बहुत पहले कभी सुना गया एक शब्द ‘कुचरा’ (जो आजकल प्रयोग में बिल्कुल नहीं के बराबर है) सुनने को मिला जब फ़िजी के दूकानदार लोग अपने घरों के खान-पान के बारे में चर्चा करते हुए उन्होंने ‘आम के कुचरा’ का प्रयोग किया। एक पल के लिए मैं भी समझ नही पाया पर अगले पल ही मुझे ‘सिल-बट्टे से कूचे गए आम की चटनी’ का खयाल आ गया। मिक्सर आदि के जमाने में आम की चटनी का यह प्रकार न तो हमारी संस्कृति व भाषा में बचा है और न ही रसोई में।
Q: फिजी सम्मेलन में आपकी कोई खास उपलब्धि?
Ans: फिजी का विश्व हिंदी सम्मेलन हमारे लिए खास इसलिए भी रहा कि हाल में प्रकाशित अपने बाल कविता-संग्रह ‘जनजातीय गौरव’ के आवरण पृष्ठ का लोकार्पण फिजी में इस गोष्ठी के दौरान ही हुआ था। वैसे तो यह कविता संग्रह बच्चों के लिए है पर इसमें जनजातीय क्रांतिकारियों का परिचय का काव्य के माध्यम से किया गया है। इसके अलावे, फिजी के इस गौरवपूर्ण यात्रा से मेरे साहित्यिक, सांस्कृतिक व भाषाई समझ को निश्चित ही विस्तार और गहराई मिली है।
Q: अंग्रेजी में अध्यापन और हिंदी साहित्य में लेखन और रुचि…ऐसा विरोधावास क्यों?
Ans: अंग्रेजी हमारे अध्ययन और अध्यापन का विषय है, जबकि हिंदी ‘माँ’ है। मैं हिंदी भाषा, खासकर अवधी, को जन्म से ही ‘जी’ रहा हूँ, ओढ़ और बिछा रहा हूँ। फ़िजी में जब हम कुछ स्थानीय दूकानदारों से बात कर रहे थे तो वे फ्रांसीसी, अंग्रेजी और फ़िजीयाई हिन्दी का बड़े अच्छे से उपयोग कर रहे थे| इन तीनों भाषाओं में वे समृद्ध हैं। हम में से कुछ भारतीयों ने उनसे अंग्रेजी में बात करने की कोशिश की, लेकिन ज्यों ही उन्हे ये लगा कि हम मूलत: हिन्दी भाषी हैं वे हिन्दी में संवाद करना शुरू कर दिए। फ्रेंच और अंग्रेजी में उनको अच्छी जानकारी है पर थोड़ा-सा भी मौका मिलते ही वे भारत जहाँ से गिरमिटिया मजदूर के तौर पर फ़िजी में लाए गए थे उसकी भाषा-संस्कृति से जुड़ना पसंद करते हैं। एक फिजियन युवक ने तो यहाँ तक बता दिया कि उनकी माँएं उनको शपथ दिलाती हैं कि वो अपनी बोली-भाषा में ही सबों से संवाद करें जबतक उन्हें कोई अन्य आवश्यकता न पड़ जाये। वे अपने घरों में तो हिन्दी ही बोलते हैं। ऐसे में अब मुझे भी लगने लगा है कि मेरा हिन्दी लेखन या हिन्दी साहित्य से अनुराग एक संस्कार है जो किसी भी परिस्थिति में मुझसे अलग नहीं होना चाहिए। हम सब यदि अपने भारतीय संस्कारों को लेकर सजग हो जाएं तो चाहे जिस भी देश या परिवेश में रहे भारत ही वहाँ सबसे पहले होगा।
Q: क्या आपको नहीं लगता कि लेखन में आधुनिकता का पुट कम है?
Ans: देखिए, लेखन को आधुनिक नजरिए से देखने की जरूरत है क्या? समाज में जो कुछ नया हो रहा है, अच्छा व खराब। उसे साहित्य में रचनात्मकता के साथ जगह मिलनी चाहिए चाहे वो निबंध, व्यंग्य, कहानी, उपन्यास, कविता आदि के रूप में ही क्यों न हो। हाँ, आधुनिकता का मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि हम अपनी परंपराओं और लोक से कट जाएं।
Q: पाश्चात्य साहित्य की वैश्विक सफलता के पीछे क्या वजह मानते हैं?
Ans: अनुवाद। पाश्चात्य साहित्य का विविध भाषाओं में अनुवाद कई गुना ज्यादा हुआ। हिंदी व लोक साहित्य का अनुवाद हो तो उसे भी वैश्विक पहचान मिल जाएगी।
Q: आपको अंग्रेजी साहित्य में क्या खूबी नजर आती है?
Ans: अंग्रेजी साहित्यकारों में अपनी भाषा को लेकर जो स्वाभिमान है वह प्रेरित करने वाला है। उनकी भाषा से नए साहित्य के सृजन को लेकर जो जिजीविषा है, उससे हम सबको सीखना चाहिए।
Q: क्या यहां पश्चिमी साहित्य पर अध्ययन हो रहा है?
Ans: जी, बिलकुल। देश में पश्चिमी साहित्य एवं एशियाई साहित्य पर अध्ययन हो रहा है। दूसरे साहित्य में और अंग्रेजी समेत दूसरी भाषाओं में जो भी अच्छा है उसे हिंदी में भी ग्रहण किया जाना चाहिए।
Q: प्रवासी हिन्दी साहित्य की क्या स्थिति है?
Ans: खूब लिखा जा रहा है। प्रवासी साहित्य में भारतीय संस्कृति और दूसरे देशों की विशेष रूप से पश्चिमी संस्कृति का अच्छा समन्वय देखा जा सकता है।
Q: फ़िजी में प्रवासी भारतीयों से बातचीत के बाद आपको क्या खास लगा?
Ans: मैंने बताया तो कि जिस प्रकार से फ़िजी में हिन्दी फिजियन हिन्दी का रूप धरकर प्रवासी भारतीयों को उनकी जड़ों से जोड़े हुए है वो क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। अपने मूल की समझ और उससे लगाव को बनाए रखने के लिए वे सतत प्रयत्नशील हैं। आपको एक और घटना बताऊँ। एक ड्राइवर साहब हमको होटल से सम्मेलन स्थल तक लाने व ले जाने के लिए थे। उनसे जब अपनी आत्मीयता बढ़ी तो उन्होंने बताया उनके पर-बाबा (great grand-father) ने अपनी मृत्यु से पहले एक पर्ची पर भारत के एक स्थान का नाम लिखा था। यह वही ‘भारतीय’ जगह है जहाँ से वे एग्रीमेंट के तहत फ़िजी लाए गए थे। उस पर्ची को आज भी वो संजोये रखे हैं। उस पर ‘कोटी’ नाम से कोई पता लिखा हुआ है| उस समय संयोग से मेरे साथ मनोजकान्त जी भी थे। उन्होंने तुरंत कहा, “अच्छा, आप बाराबंकी से हैं। वहाँ कोठी से अनेक भारतीय फ़िजी लाए गए थे।”
एक दूसरे साहब से जुड़ी एक और बात। उन महाशय ने बहुत जोर देकर शुरू में अपना उपनाम (surname) “कुमार” बार बताया। बातचीत आगे बढ़ी तब हमें पता चला उनका उपनाम पर जोर देने का तात्पर्य क्या है। इस संबंध में उन्होंने जो कहा वह एक प्रवासी के मुंह से सुनकर दिल को छू लेने वाला था। वो बोले, “सर, मेरे परिवार के लोग प्रवासी इस फ़िजी में अपना मूल कुछ नहीं बचा पाए। बस, यह उपनाम (surname) ‘कुमार’ ही बचा पाए हैं। इस तरह फ़िजी में प्रवासी भारतीयों से संवाद करते हुए उनके द्वारा अपनी जड़ों को बचाने की कोशिशें मेरे भीतर भी उतरती रहीं। मैं यह कह सकता हूँ कि फ़िजी भारत तो नहीं, लेकिन फ़िजी में भारत जरूर बसता है।
Q: तो आप कह रहे हैं कि फ़िजी में भारतीय संस्कृति बची हुई है?
Ans: जी, बिलकुल। स्वाभिमान के साथ बची हुई है। फ़िजी की एक लड़की हमारे साथ बस में सफर कर रहीं थी। वह बी.एच.यु. (बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय) की पूर्व छात्रा सुएता कुमारी चौधरी थीं। बातचीत के दौरान उन्होंने दावा किया कि जितनी कीर्तन मंडलियाँ मंगलवार को फ़िजी में अभी भी सक्रिय होती हैं उतनी उन्होंने बनारस में भी कभी नहीं देखी। एक बात और जोड़ते हुए कहा कि जिस तरह से हम फ़िजी के हिन्दू रीति-रिवाज का ध्यान रखते हुए विधि-विधान से पूजा आदि सम्पन्न करवाते हैं उस प्रकार की रुचि आम भारतीयों में न के बराबर दिखती है। इस दौरान मेरे साथ काशी को बहुत ही निकट से भली-भांति जानने वाले आदरणीय मनोजकान्त जी भी थे। भारतीय संस्कृति के प्रति फ़िजी की उस लड़की का स्वाभिमान भाव-विभोर कर देने वाला था।