मंदिरों में स्थापत्य के कई अप्रतिम उदाहरण दक्षिण में दिखते हैं। उनमें भी श्रीशैलम स्थित मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की कथाएँ और अंतर्कथाएँ तो और भी दिलचस्प हैं
इष्ट देव सांकृत्यायन: लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार हैं
श्रीशैलम के लिए हमारी यात्रा तिरुपति से शुरू होनी थी। जाना तो रेल से था और रिजर्वेशन भी कनफर्म था। लेकिन अफसोस रेल की शुद्ध सरकारी कार्यप्रणाली के तहत करीब 8 घं टे प्रतीक्षा के बाद भी जब टरेन् नही ंआई तो हमने बस से चलने का कार्यक्रम तय किया। बस शाम 6 बजे तिरुपति से चलकर रात साढ़े तीन बजे मरकपुर पहुँची। यहाँ से श्रीशैलम की कुल दूरी 84 किलोमीटर यानी दो घंटे की बचती है, लेकिन बस फिलहाल इसके आगे नहीं जा सकती थी। इसकी वजह बीच में पडऩे वाली श्रीशैलम वाइल्ड लाइफ सैंक्चुरी है। इस सैंक्चुरी में सुबह 6 बजे तक प्रवेश वर्जित है। जाहिर है, ढाई घंटे का समय हमें यहीं काटना था। सुबह 6 बजते ही
बस चल पड़ी। रास्ता जंगल से होकर गुजर रहा था। सड़क के दोनों तरफ घने जंगलों में इधर-उधर दौड़ते-भागते छोटे- छोटे वन्य जीव बच्चों के लिए आकर्षण का कें द्र बन रहे थे। यहाँ हिरन, भालू, बंदर और सेही तो बहुतायत में हैं। पक्षी भी कई तरह के हैं। सवा सात बजे हम श्रीशैलम पहुँच गए थे। मात्र आधा किलोमीटर आगे बढऩे पर कई गेस्ट हाउस और धर्मशालाएँ हैं। हमने भी एक जगह कमरे लिए और फिर तेजी से तैयार होकर 9 बजे मंदिर के लिए निकल पड़े।
कथाओं में कथाएँ
इस छोटे से कस्बे की महत्ता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इसे दक्षिण का कैलाश कहते हैं। इसकी जो धार्मिक महत्ता है, उससे भी अधिक दिलचस्प वे कथाएँ हैं जो इस ज्योतिर्लिंग को लेकर स्थानीय समुदाय में प्रचलित हैं। कथाओं में कथाएँ और उनमें भी अंतर्कथाएँ। नल्लमलाई पर्वतशृंखला पर मौजूद इस पहाड़ी को सिरिधन, श्रीनगम, श्रीगिरी और श्री पर्वत भी कहते हैं। मान्यता है कि अमावस्या को स्वयं शिव और पूर्णिमा को माता पार्वती इस ज्योतिर्लिंग में वास करती हैं। प्रवेश के लिए हमने टिकट लिए और लाइन में लग गए। 11 बजे तक हम मुख्य मंदिर में दर्शन कर चुके थे। श्रीशैलम ज्योतिर्लिंग को लेकर कई किंवदंतियाँ यहाँ प्रकारम पीठिका पर खुदी भी हैं। एक तो यह है कि महर्षि शिलाद के पुत्र पर्वत ने घोर तप किया। भगवान शिव ने दर्शन दिया तो पर्वत ने उनसे अपने शरीर पर ही विराजमान होने का अनुरोध किया। शिव ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया। इस प्रकार तपस्वी पर्वत उसी स्थान पर पर्वत के रूप में बदल गए और उन्हें श्रीपर्वत कहा गया तथा भगवान शिव ने मल्लिकार्जुन स्वामी के रूप में उनके शिखर पर अपना वास बनाया। इसीलिए श्रीशैलम में भगवान शिव को मल्लिकार्जुन स्वामी के नाम से जाना जाता है। इधर यही एक ऐसा ज्योतिर्लिंग है, जो शक्तिपीठ भी है। मल्लिकार्जुन स्वामी के साथ देवी भ्रमरांबा भी इसी परिसर में विराजित हैं। श्री शिव महापुराण के अनुसार देवी सती के ऊपरी होंठ यहीं गिरे थे। कथा यह भी है एक राजकुमारी ने भगवान शिव को पति के रूप में पाना चाहा और इसके लिए उसने कठोर तप किया। एक रात भगवान शिव ने स्वप्न में उसे निर्देश दिया कि तुम इस भ्रमर के पीछे आओ। जहाँ यह रुक जाए, वहीं ठहरकर मेरी प्रतीक्षा करना। नींद खुली तो उसने पाया कि सचमुच एक भौरं ा उसके सामने मंडरा रहा है। राजकुमारी उसके पीछे-पीछे चल पड़ी। काफी दूर तक चलने के बाद भ्रमर श्रीशैलम पर्वत पर स्थित चमेली के एक पौधे पर ठहर गया। राजकुमारी वहीं बैठकर भगवान की प्रतीक्षा करते हुए पुन: तप करने लगी। अंत में भगवान शिव एक वृद्ध के रूप में प्रकट हुए और राजकुमारी के साथ विवाह किया। इसके कुछ दिनों बाद वनवासियों ने उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया। वनवासियों ने अपनी परंपरा के अनुसार भोजन में उन्हें मांस और मदिरा परोसी, जिसे वह स्वीकार नहीं कर सके। राजकुमारी ने हठ किया तो शिव वहाँ से दूर चले गए और कई बार अनुनय-विनय के बाद भी लौट कर नहीं आए। इससे रुष्ट राजकुमारी ने उन्हें पत्थर हो जाने का शाप दिया। वे यहाँ ज्योतिस्वरूप शिवलिंग में बदल गए और मल्लिका (चमेली) पुष्पों से अर्चित (पूजित) होने के कारण मल्लिकार्जुन कहे गए। जब यह बात देवी पार्वती को पता चली तो उन्होंने राजकुमारी को भ्रमर हो जाने का शाप दिया। इस प्रकार उनका नाम भ्रमरांबा पड़ा और वही यहाँ शक्तिस्वरूप में प्रतिष्ठित हैं। एक कथा यह भी है कि भगवान शिव श्रीशैलम के जंगलों में एक बार शिकारी के रूप में आए। यहाँ उन्हें एक चेंचू कन्या से प्रेम हो गया। उसके साथ विवाह कर वह यहीं पर्वत पर बस गए। इसीलिए स्थानीय वनवासी चेंचू समुदाय के लोग मल्लिकार्जुन स्वामी को अपना दामाद बताते हैं और चेंचूमल्लैया कहते हैं। चेंचूमल्लैया का अर्थ है चेंचू लोगों का दामाद।
श्री शिव महापुराण के अनुसार भगवान शिव के पुत्र श्री गणेश और कार्तिकेय एक बार विवाह को लेकर आपस में बहस करने लगे। दोनों का हठ यह था कि मेरा विवाह
पहले होना चाहिए। बात भगवान शिव और माता पार्वती तक पहुँची तो उन्होंने कहा कि तुम दोनों में से जो पूरी पृथ्वी की परिक्रमा पहले पूरी कर लेगा, उसका ही विवाह पहले होगा। कार्तिकेय तुरंत अपने वाहन मयूर पर बैठकर पृथ्वी की परिक्रमा के लिए चल पड़े। उधर गणेश जी ने सामने बैठे माता-पिता के पूजनोपरांत उनकी ही परिक्रमा कर ली और इसी को पूरा मान लिया। जब तक कार्तिकेय लौटे तब तक गणेश जी का विवाह हो चुका था और उनके दो पुत्र भी हो चुके थे। अत: कार्तिकेय रुष्ट होकर क्रौंच पर्वत पर चले गए। फिर माता पार्वती कार्तिकेय को मनाने निकलीं। बाद में भगवान शिव भी यहाँ पहुँचकर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए। चूँकि शिवजी की पूजा यहाँ सबसे पहले मल्लिका पुष्पों से की गई, इसीलिए उनका नाम मल्लिकार्जुन पड़ा और माता पार्वती ने यहाँ शिवजी की पूजा एक भ्रमर के रूप में की थी, इसीलिए यहाँ उनके स्थापित रूप का नाम भ्रमरांबा पड़ा। मान्यता यह भी है कि भगवान शिव के वाहन नंदी ने स्वयं यहाँ तप किया था और शिव-पार्वती ने यहाँ उन्हें
मल्लिकार्जुन और भ्रमरांबा के रूप में दर्शन दिए थे।
अतिशय प्राचीन
पुराविज्ञानियों का विश्लेष ण यह है कि इस परिसर में प्राचीनतम अस्तित्व वृद्ध मल्लिकार्जुन शिवलिंग है, जो संभवत: अर्जुनवृक्ष का जीवाश्म है। यह 70-80 हज़ार
साल पुराना है। इसीलिए इसे वृद्ध मल्लिकार्जुन कहते हैं। मंदिर में प्रवेश से पूर्व एक मंडप है। इसके बाद चारों तरफ ऊँचे मंडप हैं। यह स्थापत्य की विजयनगर शैली है। वस्तुत : वर्तमान रूप में इसका निर्माण विजयनगर के सम्राट हरिहर राय ने कराया था। इनके अलावा कोंडावेडू राजवंश के रेड्डी राजाओं ने भी इसमें महत्वपूर्ण योगदान किया था। इसके उत्तरी गोपुरम का निर्माण छत्रपति शिवाजी ने कराया है। वैसे यहाँ इस मंदिर के अस्तित्व के प्रमाण दूसरी शताब्दी ईस्वी के पहले से ही उपलब्ध हैं। चारों तरफ से छह मीटर ऊँची किले जैसी दीवार से घिरे इस परिसर में कई अन्य हिंदू देवी-देवताओं के मंदिर हैं। इनमें सहस्रलिंग और नटराज प्रमुख हैं। भ्रमरांबा शक्तिपीठ के निकट ही लोपामुद्रा की एक प्रतिमा भी है। महर्षि अगस्त्य की धर्मपत्नी लोपामुद्रा प्राचीन भारत की विदुषी दार्शनिकों में गिनी जाती हैं। कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने श्री मल्लिकार्जुन स्वामी के दर्शनोपरांत ही शिवानंदलहरी की रचना की थी। मंदिर की चारदीवारी पर जगह-जगह रामायण और महाभारत की
कथाएँ उत्कीर्ण हैं। कहीं तेलुगु, कहीं संस्कृत और कहीं चित्रों की भाषा में भी। निकासद्वार पीछे से है। नारियल के पेड़ों की छाया में दीवारों पर खुदी इन कथाओं को पढ़ते-देखते निकलना एक अलग ही तरह का सुखद एहसास देता है। मंदिर से बाहर निकले तो धूप बहुत चटख हो चुकी थी। जनवरी के महीने में भी हाफ शर्ट पहनकर चलना मुश्किल हो रहा था। बाहर एक रेस्टोरेंट में दक्षिण भारतीय भोजन किया। बच्चे डैम देखने के लिए इतने उतावले थे कि भोजन के बाद अल्पविश्राम की अर्जी भी नामंजूर हो गई। हमें तुरंत टैक्सी करके बाँध देखने के लिए निकलना पड़ा। एक अच्छी बात यह भी है कि यहाँ तिरुपति की तरह भाषा की समस्या नहीं है। वैसे मुख्य भाषा तेलुगु ही है, लेकिन हिंदीभाषियों को कोई असुविधा नहीं होती। हिंदी फिल्मों के गाने यहाँ खूब चलते हैं। कस्बे से डैम तक पहुँचने में केवल आधे घंटे का समय लगा, वह भी तब जबकि रास्ते में हमने साक्षी गणपति का भी दर्शन कर लिया। ऐसी मान्यता है कि मल्लिकार्जुन स्वामी के दर्शन-पूजन के लिए जो लोग आते हैं, उनका
हिसाब-किताब गणपति ही रखते हैं और यही उनका साक्ष्य देते हैं। इसीलिए इनका नाम साक्षी गणपति है। वैसे इनका दर्शन सबसे पहले करते हैं।
बंद डैम का आनंद
डैम पहुँच कर बच्चे अभिभूत थे। इस समय यहाँ पानी कुछ खास नहीं आ रहा था। पानी के अभाव में न तो कोई टर्बाइन चल रही थी, न कोई और ही गतिविधि जारी थी। उत्पादन बंद था, लेकिन इसकी भव्यता से इसकी महत्ता को समझा जा सकता था। नल्लामलाई (श्रेष्ठ पर्वतशृंखला) पर्वतशृंखला में कृष्णा नदी पर बना यह डैम देश का तीसरा सबसे बड़ा जलविद्युत उत्पादन कें द्र है। समुद्रतल से 300 मीटर ऊँचाई पर बने इस बाँध की लंबाई 512 मीटर और ऊँचाई करीब 270 मीटर है। इसमें 12 रेडियल क्रेस्ट गेट्स लगे हैं और इसका रिजर्वायर 800 वर्ग किलोमीटर का है। बाएँ किनारे पर मौजूद पावर स्टेशन में 150 मेगावाट के छह रिवर्सिबल फ्रांसि स पंप टर्बाइंस लगे हैं और दाहिने किनारे पर 110 मेगावाट के सात फ्रांसि स टर्बाइन जेनरेटर्स हैं। इसकी उत्पादन क्षमता 1670 मेगावाट बताई जाती है। इसके अलावा यह कुर्नूल और कडप्पा जिले के किसानों को सिंचाई के लिए पानी भी उपलब्ध कराता है। यह तब है जबकि इसमें बाढ़ के दौरान आने वाला बहुत सारा पानी इस्तेमाल किए
बगैर छोड़ दिया जाता है।
इतिहास में पंचमठम
घूमने के लिए यहाँ और भी कई जगहें हैं। इनमें श्रीशैलम के इतिहास और संस्कृ ति में पंचमठम का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उच्च अध्ययन को समर्पित इन मठों में
घंट मठम, भीमशंकर मठम, विभूति मठम, रुद्राक्ष मठम और सारंगधारा मठम शामिल हैं। इन मठों का इतिहास सातवीं शताब्दी से शुरू होता है। तब यहाँ कई मठ थे।
अब केवल यही पाँच बचे हैं और वह भी जीर्ण हालत में हैं। ये मठ श्रीशैलम मुख्य मंदिर से करीब एक किलोमीटर दूर पश्चिम दिशा में स्थित हैं। श्रीशैलम से 8 किमी दूर
स्थित शिखरम समुद्रतल से 2830 फुट की ऊँचाई पर है। शिखरेश्वरम मंदिर में गर्भगृह और अंतरालय के अलावा 16 स्तंभो ंवाला मुखमंडपम भी ह।ै सं ुदर जलप्रपात फलधारा पंचधारा कस्बे से पाँच किलोमीटर और अक्क महादेवी की गुफाएँ करीब 10 किलोमीटर दूर हैं। समय हो तो आप हटकेश्वरम, कैलासद्वारम, भीमुनि कोलानू, इष्ट कामेश्वरी मंदिर, कदलीवनम, नगालूती, भ्रमरांबा चेरुवु, सर्वेश्वरम और गुप्त मल्लिकार्जुनम को भी अपनी यात्रा योजना में शामिल कर सकते हैं। यहाँ आकर हमें एहसास हुआ कि इस छोटे से कस्बे की घुमक्कड़ी का पूरा आनंद लेने के लिए कम से कम एक हफ्ते का समय चाहिए।