3 अप्रैल को निर्मल वर्मा 94 वर्ष के होते, यदि हमारे बीच होते, मगर उनका लेखन तो हमारे पास है । मुझे उनका डायस्पोरिक लेखन याद आता है ।
मेरे एक मित्र निर्मल वर्मा का बिना रूके गुणगान करते हैं । उनकी साहित्यिक समझ का मैं लोहा मानती हूँ । वे कहते …“ मैं अपनी सीमाएं जानता हूं। निर्मल जी जैसे लेखकों को पढ़ने के बाद तो और भी ज्यादा..!” और कब किस मनःस्थिति में मैंने निर्मल को पढ़ना शुरू किया, याद नहीं। बस उन दिनों मेरे आसपास निर्मल वर्मा के अलावा और कुछ नहीं था ।
मेरे 15 दिन मेरे लिए शून्य हो चुके थे क्योंकि अब ये दिन निर्मल के थे । निर्मल वर्मा की हर चीज मेरे स्कैनर पर थी । चलिए रचनाओं में ही वर्मा को खोजते और समझते हैं। लेखक का लेखन ही लेखक को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेगा- उनका जीवन परिचय नहीं ।वे खुद ही कहते हैं ,
“मैं नहीं मानता कि किसी लेखक के निजी जीवन के बारे में जानने से हमें उसके लेखन की कोई गहरी समझ मिलती है।”
- शिमला (हिमाचल प्रदेश) में, ब्रिटिश भारत के रक्षा विभाग में पदस्थ एक उच्च अधिकारी के घर जन्म लेने वाले निर्मल वर्मा की संवेदनात्मक समझ पर हिमांचल की पहाड़ी आभायें दूर तक असर डालती हैं। पराए देश में रहते हुए भी उनसे अपने शिमला की पुरानी यादें भुलाई नहीं जा सकीं। जाखू मंदिर, काली बाड़ी और अन्य स्थान। विदेश में रहते हुए, लेखक अपने स्कूल के दिनों को याद करता है, “मेरा स्कूल 750 फीट की ऊंचाई पर जाखू पहाड़ी के पास स्थित था। अब हम नीचे आ गए हैं, बहुत नीचे, बचपन की वह ऊँचाई खो गई है।” क्या गहराई है अभिव्यक्ति की । यही मुझे निर्मल के प्रति मोहित करता है ।
- शुरुआत से वे बेहद सक्रिय थे । छात्र जीवन में भी में, नियमित रूप से दिल्ली में महात्मा गांधी की प्रार्थना सभाओं में भाग लेते थे, जबकि वह भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड धारक सदस्य थे। जिससे उन्होंने में हंगरी पर सोवियत आक्रमण के बाद इस्तीफा दे दिया था। सक्रियता ही उनकी कहानियों का लक्षण है , जिसने भारतीय साहित्यिक परिदृश्य में एक नया आयाम जोड़ा। सक्रिय आदमी रिस्क लेता है और सुरक्षित नहीं होता । निर्मल कहते हैं-
” एक लेखक के लिए आध्यात्मिक सुरक्षा की कामना करना उतना ही घातक है जितना कि भौतिक सुख की आकांक्षा। एक लेखक के लिए, शरण का हर स्थान एक गड्ढा है; आप एक बार गिरते हैं, और रचनात्मकता का स्पष्ट आकाश हमेशा के लिए खो जाता है।- “धुंध से उठती धुन”
- निर्मल वर्मा, मोहन राकेश, भीष्म साहनी, कमलेश्वर, अमरकांत, राजेंद्र यादव आदि, हिंदी साहित्य में नई कहानी के संस्थापक माने जाते हैं।
निर्मल को उनकी छोटी कहानियों और सबसे प्रसिद्ध कहानी, ‘परिंदे‘ के लिए जाना जाता है, जो हिंदी साहित्य में नई कहानी आंदोलन की शुरुआत है । अन्य कहानियाँ हैं अंधेरे में, डेढ़ इंच ऊपर और कव्वे और काला पानी। निर्मल वर्मा की अंतिम कहानी “अब कुछ नहीं” थी।
- मगर हम उनके डायस्पोरिक लेखन से प्रभावित हैं-
1959 से 1972 के बीच उन्हें यूरोप प्रवास का अवसर मिला। वह प्राग विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्या संस्थान में कई वर्षों तक रहे, जहां उन्हें ओरिएंटल इंस्टीट्यूट द्वारा आधुनिक चेक लेखकों के हिंदी में अनुवाद के लिए आमंत्रित किया गया था । उन्होंने चेक भाषा भी सीखी और 1968 में घर लौटने से पहले नौ विश्व क्लासिक्स का हिंदी में अनुवाद किया । निर्मल वर्मा साहित्यिक विमर्श से जुड़ी कई समस्याओं को उठाते हैं। उन्होंने कुछ साहित्यिक महापुरूषों, जैसे चकाव, ब्रेख्त, लेक्सनेस, काफ्का आदि, का साक्षात्कार लिया और उनके कुछ पत्र एकत्र किए।
प्राग में अपने प्रवास के दौरान उन्होंने पूरे यूरोप में व्यापक रूप से यात्रा की, और सात यात्रा वृत्तांत लिखे, जिनमें “चीड़ों पर चांदनी” (1962), “हर बरिश में” (1970) और “धुंध से उठती धुन” और प्राग में अपने छात्र दिनों पर आधारित पहला उपन्यास “वे दिन” (1964) शामिल हैं ।
वर्मा के रहने-खाने के स्थान उनके लेखन में आवश्यक कल्पना को उजागर करते हैं, लघु कहानी संग्रह ‘परिंदे’ से लेकर ‘वे दिन’ तक, पूरी तरह से यूरोप में सेट उपन्यास में दिखते हैं ।शिमला- दिल्ली- प्राग -दिल्ली, लंदन में एक संक्षिप्त पड़ाव, वर्मा की रचनात्मक में एक निरंतरता बनाते हैं। निर्मल वर्मा को उनकी व्यापक यात्राओं और भारत के बाहर, साहित्यिक परंपराओं के साथ, जुड़ाव लिए भी जाना जाता है ।
- प्राग से लौटने पर, उनका साम्यवाद से मोहभंग हो गया और बाद में वे भारतीय आपातकाल के खिलाफ अत्यधिक मुखर हो गए, और तिब्बती स्वतंत्रता आंदोलन के हिमायती बन गए।
- उन्होंने बाद के लेखन ने भारतीय परंपराओं की ठोस समीक्षा की । जिसे पश्चिमी दृष्टिकोण और सांस्कृतिक परिवेश की आधुनिकता की तुलना में अधिक आधुनिक पाया । जब कि पश्चिमी दृष्टिकोण भारतीय लोकाचार पर, थोपा जा रहा था । बाद में उनके विचार हिंदुत्व समर्थक के रूप में थे । उन्होंने यूरोप की व्यापक रूप से यात्रा की और जीवन शैली तथा रीति-रिवाजों के पश्चिमी दृष्टिकोण को करीब से देखा । समय के साथ, उनका यह मत बढ़ता गया कि भारतीय परंपराएँ पश्चिमी लोगों की तुलना में स्वाभाविक रूप से आधुनिक थीं।
- उन्होंने अपने प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर भारतीय और पश्चिम की संस्कृतियों के अंतर्द्वन्द्व पर गहनता एवं व्यापकता से विचार किया। निर्मल वर्मा ने अपने शक्तिशाली और विचारोत्तेजक लेखन के साथ भारतीय डायस्पोरा की जटिलताओं और विरोधाभासों पर कब्जा कर लिया। उनके प्रवासी लेखन के लिए प्रतिबद्ध साहित्यिक कार्य, अपने विस्तार, विशद कल्पना और मजबूत चरित्रों के लिए जाने जाते हैं। निर्मल वर्मा के प्रवास कालीन लेखन के कुछ उदाहरण देखें ।
- “वेदर रिपोर्ट” – यह लघुकथा विदेश में रहने वाले एक भारतीय परिवार की कहानी कहती है, जो विदेशी संस्कृति में अपनेपन की भावना खोजने के लिए संघर्ष कर रहा है। कहानी एक नए देश में रहने की चुनौतियों और कठिनाइयों और परिवार के सदस्यों के बीच असहज संबंधों को उजागर करती है।
- “इन अदर कंट्री” – इस उपन्यास में, वर्मा भारतीय प्रवासियों के बीच पहचान, जड़हीनता और विस्थापन के विषयों पर बात करते हैं। कहानी लंदन में होती है, जहां युवा भारतीय प्रवासियों का एक समूह अपने समुदाय के भीतर तनाव और संघर्ष से निपटने के साथ दुनिया में अपनी जगह बनाने की कोशिश करता है।
- “द लास्ट फ्यू मंथ्स” – यह कहानी पेरिस में रहने वाले एक परिवार की कहानी कहती है, जो फ्रांस में अपने गोद लिए घर के साथ अपनी सांस्कृतिक विरासत को समेटने की कोशिश कर रहा है। वर्मा के कई कार्यों की तरह, यह उन व्यक्तियों की लालसाओं और संघर्षों को प्रकट करता है जो दो दुनियाओं के बीच फंसे हुए हैं, कभी भी पूरी तरह से घर में महसूस नहीं करते । निर्मल वर्मा ने पश्चिमी देशों में काफी वर्ष बिताए और लेखन के अलिखित उद्देश्य तय किए ।
- पहला भारतीय और यूरोपीय देशों के बीच समानताओं की पहचान करना और
- दूसरा दो विश्व के बीच असमानताओं का पता लगाना।
हमारा ध्यान निर्मल वर्मा पर केंद्रित है-
‘वे दिन‘ और ‘चिड़ों पर चांदनी‘ उनकी दो रचनाएं हैं जो उनके प्रवास के दौरान यूरोपीय देशों में लिखी गईं।अपनी मातृभूमि के लिए प्यार और जुनून दोनों रचनाओं में दिखाया गया है।
- ‘वे दिन’ ( उपन्यास) 1964 में प्रकाशित हुआ था। मगर 1959-1964 के दौरान लिखा गया था, जब वे ओरिएंटल लर्निंग इंस्टीट्यूट और चेकेस्लोवाक राइटर्स एसोसिएशन के आमंत्रण पर चेकोस्लोवाकिया में थे । यह उपन्यास आत्मकथा की शैली में लिखा गया है ।
कहानी छात्रावास के निवासी छात्रों के जीवन की है । इंडी, तलाकशुदा जर्मन पर्यटक रेयान और उसका बच्चा मीता प्रमुख चरित्र हैं । इंडी और रेयान अपनी अलग-अलग संस्कृति, भाषा, और उम्र के अंतर के बावजूद मिलते हैं और अपना अकेलापन रेखांकित करते हैं। इंडी एक पार्ट टाइम टूरिस्ट गाइड है ।रेयान और इंडी एक दूसरे की ओर झुके हुए हैं-
“श्रीमती रेयान—कल का प्रोग्राम तैयार कर लेना चाहिए।”
“सुनो — क्या तुम मुझे रेयान ही नहीं कह सकते”
उसने इंडी की तरफ देखा । उसका चेहरा पानी के धब्बे की तरह धुला हुआ था – उसकी सांसें मेरे गालों को छू रही थीं। ”
दोनों के बीच संबंध असमान है। जब विदा होने की संभावना होती है, तो रेयान एक खुश नोट के साथ रोमांस और जुनून को समेटने की कोशिश करती है लेकिन इंडी भावुक होने लगता है। पश्चिमी लोग प्यार के मामले में भी अधिक तर्कसंगत और व्यावहारिक होते हैं ।
- निर्मल ने पेरिस के साथ नार्वे, आइसलैंड और प्राग का रोचक और सजीव चित्रण किया है। यहाँ निर्मल द्वारा देखी गई आइलैंड के लोगों की एक अनूठी विशेषता है “आइसलैंड के लोगों का दो चीजों के प्रति बहुत झुकाव होता है एक शराब और दूसरी भाषा। अपनी भाषा के प्रति इतना लगाव मैंने किसी मे ( बंगाली के अलावा ) कहीं नहीं देखा । इन लोगों का एक और गुण है पुरुषों और महिलाओं के बीच सरल प्राकृतिक संबंध । इसे अन्य देशों में अनैतिक या अकरणीय या अकथनीय के रूप में लादा गया है । लेकिन यहां नैतिकता को थोपा नहीं गया है । महिलाओं की मातृत्व की अवस्था का सम्मान है चाहे कोई विवाहित हो या नहीं ।
- उनका स्पष्ट मत है कि साहित्य, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव नहीं ला सकता है। वे कहते हैं, ‘ये अप्रासंगिक प्रश्न हैं , ऐसे प्रश्नों का कोई भी उत्तर निराधार और अपर्याप्त तर्कों पर आधारित होगा यदि मुझसे पूछा जाए कि मैं शेक्सपियर को दोस्तवोस्की से अधिक क्यों पसंद करता हूं, तो वास्तव में मेरे पास कोई उत्तर नहीं होगा।’
- निर्मल वर्मा के डायस्पोरिक लेखन में – दो दुनियाओं के बीच फंसे व्यक्तियों के अनुभवों के प्रति उनकी संवेदनशीलता के साथ प्रवासी समुदायों की चुनौतियों और जटिलताओं और उनकी अपनी पहचान और अपनेपन की खोज है । वे लिखते हैं-
“तुमने कभी उसे देखा है ?
किसे ?
दुख को…
मैंने भी नहीं देखा, लेकिन जब तुम्हारी कज़िन यहाँ आती है, मैं उसे छिप कर देखती हूँ। वह यहाँ आकर अकेली बैठ जाती है। पता नहीं, क्या सोचती है और तब मुझे लगता है, शायद यह दुख है !” – एक चिथड़ा सुख
उनके लोकप्रिय उपन्यास “ए टॉर्न हैप्पीनेस” में, अगस्त स्ट्रिंडबर्ग का चित्रण कई पात्रों के सामने भारी पड़ गया।
निर्मल वर्मा, ने प्रवासी साहित्य में गहरी मनोवैज्ञानिक द्रष्टि, अव्यवस्था और सांस्कृतिक पहचान की अपनी अंतर्दृष्टि के साथ, अंग्रेजी साहित्य में भी डायस्पोरा लेखन किया है।
वर्मा की सबसे प्रसिद्ध लघु कथाओं में से एक, “परिंदे”, पेरिस में दो भारतीय प्रवासियों की कहानी बताती है जो एक विदेशी भूमि में अलगाव और उदासीनता की भावनाओं से जूझते हैं। कहानी कई प्रवासी समुदायों द्वारा अनुभव किए गए विस्थापन की भावना को पकड़ती है, जो अक्सर खुद को अपनी सांस्कृतिक जड़ों और एक नए समाज में आत्मसात करने के दबाव के बीच फटा हुआ पाते हैं। पुरानी यादों और घर की लालसा में , नायक अपने गाँव लौटता है और पाता है कि यह पहचान से परे बदल गया है। वर्मा की पहली कहानी जिसने उन्हें प्रसिद्धि दिलाई, वह परिंदे ही थी जिसकी मुख्य नायिका अकेली लतिका है। स्वयं को अवसाद में डूबी और पहचान के संकट से जूझती हुई नितान्त अकेली स्त्री घोषित कर रखा है , जबकि उनके निजी जीवन में उन्हें सब-कुछ मिला हुआ जिनसे बहुत-सी स्त्रियाँ वंचित हैं ।
- कुल मिलाकर, निर्मल वर्मा का प्रवासी लेखन उन लोगों के अनुभवों का एक शक्तिशाली प्रतिबिंब है जो खुद को संस्कृतियों के बीच पाते हैं, और उनका काम आज भी दुनिया भर के पाठकों के साथ गूंजता रहता है।
- वर्मा का विदेशी लेखन दुनिया भर की विभिन्न साहित्यिक और बौद्धिक परंपराओं के साथ उनके जुड़ाव को दर्शाता है। उन्होंने अक्सर फ्रांज़ काफ्का, सैमुअल बेकेट और अल्बर्ट कैमस जैसे यूरोपीय आधुनिकतावादी लेखकों से प्रेरणा ली।
- वर्मा के यात्रा वृत्तांत और साहित्य और संस्कृति पर निबंध भी विभिन्न सांस्कृतिक परिदृश्यों और अपनी यात्रा के दौरान उनसे मिले लोगों के साथ उनके मुठभेड़ों को दर्शाते हैं।
- अंग्रेजी अनुवाद में उनकी कुछ उल्लेखनीय कृतियों में “द बुक ऑफ मिसफॉर्च्यून”, “द सर्पेंट्स रिवेंज”, “द लास्ट वाइल्डरनेस” और “आउट ऑफ प्लेस” शामिल हैं। ये कार्य अस्तित्वगत चिंता, पहचान, सांस्कृतिक विस्थापन और मानव संबंधों की जटिलताओं जैसे विषयों से संबंधित हैं।
- वर्मा ने अपनी भाषा का निर्माण किया जिसने अपनी संवेदनशीलता, गीतात्मक संवेदनशीलता और बारीकियों के कारण अपनी अलग पहचान बनाई। इसने पाठक पर जादू बिखेरा।
- वर्मा हिंदी लेखकों में सबसे महानगरीय थे और उनके उपन्यास और लघु कथाएँ अक्सर विदेशी भूमि में स्थापित की जाती थीं।
“अतीत कितने गुप्त सुराखों से, कितनी सेंध लगाकर हमें खटखटाता है। वर्तमान वही नहीं है, जो अब और आज है। वह भी है जो बीतने पर भी हमारे भीतर जीवित है।”
-संसार में निर्मल
लेखक के दिमाग में एक नज़र डालने के बाद समझ आया कि
वर्मा के जीवन और लेखन को देखने का प्रयास – और इससे भी अधिक, दोनों को जोड़ने का आग्रह – कई साहित्यिक यात्राओं के जोखिमों से भरा है। वर्मा के काम की रचनात्मक गहराई उन्हें परस्पर विरोधी रंगों में देखे जाने की ओर ले जाती है ।
तत्कालीन चेकोस्लोवाकिया में वर्मा के नौ साल (1959-68) – साठ के दशक के प्राग, हिंदी लेखक के साथ चेक क्लासिक्स के अनुवादक के रूप में उनके रचनात्मक संबंध – वर्मा की विकसित विश्वदृष्टि – पाठकों की नई पीढ़ी के लिए नया यूरोप पेश करती है – जिसने मानव स्थिति का विश्लेषण किया और औपनिवेशिक ब्रिटेन की ऐतिहासिक स्मृति से परे यात्रा की।
वर्मा ने पाठकों की साहित्यिक रुचियों के ऊपर पूर्वी यूरोप को रखा और उसी समय, वर्मा के प्राग वर्षों के अचानक अंत ने संस्थागत वाम के एक कार्ड-धारक सदस्य से अपने राजनीतिक विकास को भी तेज कर दिया, अधिनायकवादी शासन के एक मोहभंग वाले आलोचक के रूप में था। वर्मा के राजनीतिक दृष्टिकोण उल्लेखों तक ही सीमित है। वर्मा ने भारत में आपातकाल के विरोध के साथ चेकोस्लोवाकिया में सोवियत कार्रवाई का विरोध किया । वर्मा के विचार किसी एक परंपरा के प्रति गैर-प्रतिबद्ध हैं, और कट्टरवाद से बहुत दूर हैं।
वे “भाषाई आविष्कार” के लिए प्रशंसनीय हैं । निर्मल वर्मा के लिखे में जादू था लेकिन यह उनका जादू था । निर्मल वर्मा की भाषा ने पाठकों पर जादू बिखेरा क्योंकि यह उन अनुभवों को व्यक्त करने की कोशिश करती है जो हिन्दी साहित्यकार के लिए नए थे।
एक ओर, निर्मल पाठक को मोहित करते है क्योंकि वह वर्मा की दो आपस में जुड़ी हुई दुनिया से गुज़रता है ।निर्मल के डायस्पोरिक लेखन की यही विशेषता है
तमाम फलकों पर रोशनी बिखेरने के बाद और मेरे 15 दिन अपने खाते में रखने के बाद-
25 अक्टूबर, 2005 को दिल्ली में उनका निधन हो गया।
“उम्र के बारे में क्या सोचना ? वह रात की बर्फ है। सोते हुए पता भी नहीं चलता, सुबह उठो तो फाटक पर ढेर-सी जमा हो जाती है।” – आदमी और लड़की
अब मैं निर्मल को नहीं पढ़ती ।
निर्मल पुराना प्रेम हैं। मेरे साथ रहता है । हर बार पढ़ने पर निर्मल और गहरे समझ में आए । कुछ लेखकों को ऐसे पढ़ना बड़ा सुख देता है। निर्मल वर्मा की यादें उनके जन्मदिन पर ताज़ा हो गईं हैं । निर्मल वर्मा ने कम लिखा है, जटिल भी लिखा है, परंतु जितना लिखा है उससे ही वे बहुत ख्याति पाये हैं।
जन्मदिन मुबारक हो निर्मल वर्मा