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अधिकारविहीन समाज के संघर्ष के रूपक हैं राम

Jhuggi

राम और राम की शक्ति पूजा के संदर्भ में समसामयिक राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य को खंगालता आलोक मिश्र का यह आलेख

ससमुद्र पर पुल बनाते वक्त श्रीराम समुद्र की वंदना करते हैं। लक्ष्मण यह देखकर खिन्न भाव से कहते हैंः “कायर मन को एक अधारा/देव-देव आलसी पुकारा“। राम की वंदना को सिंधु की लहरों ने लापरवाही से ठुकरा दिया, समुद्र अपने साम्राज्य में मदमस्त रहा। “उत्तर में जब एक नाद भी उठा नहीं सागर से, उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से“। श्रीराम अभूतपूर्व योद्धा थे, तथापि “स्थिर राघवेंद्र को हिला रहा फिर-फिर संशय“ की मनोदशा के शिकार हुए। हम साधारण मनुष्य जो अपनी अक्षमताओं के आजन्म बन्दी हैं, हमारा भय इतिहास का विषय नहीं बनेगा। ग़रीबी, संस्थागत शोषण, और हमारे अंतर्मन के भय के अनगिनत सिलसिले में “चमक उठे हैं सलासिल तो हमने जाना है/कि अब सहर तेरे रुख़ पर बिखर गई होगी“ की तसल्ली भी साहित्य-प्रेमियों के बेपरवाह तवज्जो में बिखर जाएंगे। अधिक से अधिक हम रामलीला के दर्शक-दीर्घा में सहयोग कर सकते हैं, नतीजा- “अनिवार्यतः पीछे रह जाएँगे…इतिहास में बन्दर कहलाएँगे“।

नोबेल विजेता कोट्ज़ी ने लिखा हैः Only pain is truth, rest all is subject to doubt. यथार्थ के विराट्य का बोध नयी राजनीति का उदय है, जिसका विवरण असहाय समाज के शक्ति-संघर्ष में पुल का निर्माण करे, माँ जानकी से प्रार्थना है।

21वीं सदी चिंतन का नया दौर लाया है। बीती सदी के अंत वर्षों में जब फूकोयामा ने इतिहास के अंत की घोषणा की, उनकी बातों को जनमानस तक नहीं पहुँचने दिया गया। 1970 से 2010 के दौरान विश्व मे लोकतांत्रिक सत्ता की अभूतपूर्व ललक दिखी। 1973 में विश्व के 151 देशों में से मात्र 45 राष्ट्र लोकतन्त्र में आस्थावान् थे। भारतीय उपमहाद्वीप की उथल-पुथल के नेपथ्य में चीन माओ त्से के लौह ओ कलम की धार आजमा रहा था, सोवियत और उसके सहचरों ने लौह गवाक्ष (iron curtain) निर्माण कर लिए थे, स्पेन पुर्तगाल आदि अधिनायकवाद से परिचालित थे। 70 के दशक ने भारत को आपातकाल से अवगत कराया, जिसमें एक ओर दमन की नीतियों के विरुद्ध देश में निर्णायक जन-आंदोलन हुए, वहीं जनसँख्या की दिनचर्या में वैश्विक व्यापार के उदारवादिता की स्वीकृतियाँ भी स्पष्ट होने लगी। बंगाल हो कि गुजरात, कई सफल उद्योगों की जननी रही उदारवादिता और लोकतंत्र की सुगंध ऐसी फैली कि 90 के ढलते वर्षों तक 120 देशों में लोकतंत्र स्थापित पाया गया। उदारचरितानांतु वसुधैव कुटुम्बकम् के बीजमंत्र से प्रभावित राजनैतिक परिवर्तन के विस्तार में एक गतिशील सामाजिक चलिष्णुता देखी गयी, इसका लाभ आने वाली पीढ़ियों को विरासत में मिली। Millennial, Gen-X आदि संज्ञाओं से विभूषित युवा सन्तति का वर्तमान आज यदि उदारवादिता और जन-प्रतिनिधित्व के संकल्प से ओजस्वी है तो इसका श्रेय पिछली पीढ़ियों को जाता है जिनकी सामूहिक प्रतिभागिता के कारण लोकतंत्र शासन की प्राथमिक पद्धति बन सकी।

2014 के बाद भारत में विरोध का स्वर मुखर हुआ है, इसमें दो राय नहीं है। लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन की श्रृंखला ईरान, वेनेज़ुएला, रूस में देखे जा सकते हैं, जहाँ जनप्रतिनिधियों ने निजी हितों के लिए चुनाव प्रक्रिया को दूषित किया, समाचार तन्त्र को शिथिल किया और विपक्ष पर नियंत्रण कसा। उज़्बेकिस्तान, कज़ाकस्तान आदि सोवियत वंशजों की अनिश्चितता का हाल और बुरा है। यूक्रेन के उदाहरण से समझें कि 2004 में जिस विक्टर यानुकोविच के अलोकतांत्रिक रवैये के विरुद्ध जनता ने Orange Revolution के रूप में अपना अविश्वास जताया, 2008 के वित्तीय प्रकोप से उत्तरार्द्ध में उसी यानुकोविच की सत्ता लौटी। भारत में यही प्रयास कांग्रेस भी कर रही है, हालांकि मुझे विश्वास है कि देश इस वंशवादी और नेतृत्वहीन पक्ष को पहचान चुका है। वर्षों तक तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले इस गिरोह ने राजनैतिक इच्छाशक्ति और सामाजिक परिष्करण के सिद्धांत अपनी सम्पदा बढ़ाने में लगायी, इसका एक उदाहरण गुड़गांव है। दशकों तक जब धर्म-निरपेक्षता के नाम पर एक संस्कृति को हीन दिखाया गया और दूसरे को गंगा-जमुनी तहज़ीब का सियासी तमगा बाँटा गया तो धर्म की राजनीति ख़ून का रंग ले बैठी। यह धर्म-निरपेक्षता संविधान में जिस “प्दकपं पे प्दकपतं“ ने आपातकाल में डलवाया, उस आपातकाल का मुहूर्त अपने समय के विख्यात तांत्रिक से पूछकर ही तय किया गया, यह एक किंवदंती है। सच ही, धर्मो रक्षति रक्षितः।

इस देश से बहुत दूर, लैटिन अमेरिका का परिदृश्यः सम्पदा वितरण हो या सामाजिक न्याय, एक पलड़े पर क्रूर उपनिवेशवाद है तो दूसरी ओर नशा, व्यभिचार और जुर्म से जनमानस में उपजी भयाक्रांत असुरक्षा। भारत में इसका जिम्मा भारतीय जनता पार्टी ने उठाया है, और महामारी के दुर्लभ क्षणों में उनका चरित्र और उज्ज्वल हुआ है। भ्रष्टाचार के नित-नवीन क्षेपक गढ़ने में सरकार की भूमिका पर अब न बहस होती है ना ही विमर्श। लोकतांत्रिक सिद्धांतों की विश्वसनीयता उसी अनुपात में कम हुई है, लेकिन इससे भीड़-चाल को अपूर्व बल मिल रहा है। जॉन एलिया का शेर हैः “अब किसी से किसी को ख़तरा ही नहीं/हर किसी को हर किसी से ख़तरा है“। पिछले दशक में भ्रष्टाचार से लड़ने वाली टीम अन्ना एक क्षेत्रीय पार्टी बनकर उभरी थी हालांकि उसने अपने पुराने साथियों को चुन-चुन कर बाहर निकाल दिया और समय-समय पर इन दोनों पार्टियों के आजमाए पैंतरे इस्तेमाल करती है और प्रत्यक्ष-परोक्ष ठगबंधन में लिप्त होती रहती है ताकि उसका अधिनायकशाही नेता चुनावी इश्तिहारों में अपने को हीरो बता सके। अन्य क्षेत्रीय पार्टियों पर चर्चा भी समय का नाश है जिसकी फ़ुर्सत बुद्धिजीवियों के अलावा किसे है?

रामायण विश्व का पहला काव्य-ग्रंथ है, इसकी पुष्टि वामपंथी भी करते हैं दक्षिणपंथी भी। एक राजा के पुत्र को वनवास मिला, उसकी पत्नी हर ली गयी, उसने अकेले दम पर एक सेना का गठन किया और कुबेर के भाई पर निर्णायक विजय प्राप्त किया। रामायण के मिथक की आत्मा में जो archetype है वह बुद्ध के जीवन मे भी दिखेगा, मूसा के जीवन मे भी। राम मनोहर लोहिया मानते थे कि राम की कहानी हर व्यक्ति के लिए विद्यालय हैः “उन्मुक्त पुरुष नियम और कानून को तभी तक मानता है जब तक उसकी इच्छा होती है और प्रशासन में कठिनाई पैदा होते ही उनका उल्लंघन करता है। राम के मर्यादित व्यक्तित्व के बारे में एक और बहुमूल्य कहानी है। उनके अधिकार के बार में, जो नियम और कानून से बँधे थे, जिनका उल्लंघन उन्होंने कभी नहीं किया।“ राम की शक्ति पूजा अराजकता के प्रचार से नहीं हो सकती, सत्ता के लोभ में उसका अस्तित्व स्थायी नहीं होगा। गाँधी का संघर्ष और नेहरू की लिप्सा का अंतर जो समझते हैं वे राजनीति में पार्टी-विशेष से बंधकर नहीं रह पाएंगे, उनकी कर्मभूमि विधान सभा के गलियारों में न होकर झुग्गी-झोपड़ी के श्रमिकों के बीच होगी। उनका ध्येय चुनाव जीतना नहीं होगा, उनका संकल्प मतदाता को निष्पक्ष चुनाव का वातावरण प्रदान करना होगा। हमें इस postmodenity का धन्यवाद करना चाहिए जो सत्ता का वास्तविक चेहरा हमारे सामने लायी है, हालांकि इसकी सूचना मार्क्स ने 150 साल पहले ही दे दी थीः “Our epoch, the epoch of the bourgeoisie, possesses, however, this distinct feature: it has simplified class antagonisms.”

राम की शक्ति-पूजा में निराला राम के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं जिसमे राम की त्याग-भावना वानर-सेना में अपूर्व शौर्य भरती है “दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण/पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन“। यह त्याग-भावना प्रेम में ठुकराए आशिक की नहीं है बल्कि उस विरह-भोगी की है जिसकी सीता को एक ब्रह्मज्ञानी सम्राट ने भिखारी के वेश में चोरी कर ली। जैसे हमारा देश है, इसकी जनता है, जिसका अधिकार उससे छीन लिया गया, इतिहास की पुनरावृत्ति के लिए इस बार भी फ़कीर का बहाना लिया गया। हम देश की निर्धन और वंचित जनता हैं, सूर्य के पुत्र याचक को कर्ण-कुंडल देते हैं और परास्त हो जाते हैं।

“इसका उपाय क्या है“ पूछने वाले की मंशा सन्देहास्पद है। घर में साँप आ जाये तो उसका उपाय मुझसे मत पूछिए, साँप के विष से बचिए, और लाठी से उसे बाहर खदेड़ फेंकिए। बैंक आपको लूटता है तो बैंक में पैसे मत रखिये, निवेश ही करना है तो शीशम के वृक्ष लगाइये। Facebook यदि data चुरा रहा है और सरकार यदि surveillance कर रही है तो अपनी अंतरंगता की सूचना परोसते मत फिरिये, असली व्यक्तियों से संबंध साधिए, तिपमदक सपेज में जिंदा लाशों की संख्या मत वृद्धि कीजिये। “जनता त्रस्त है“ कहने की आड़ में दूसरे पक्ष के डकैत को मत चुनिए, अपने पंचायत, नगर-निगम में ईमानदार प्रतिनिधि को वोट दीजिए, न कि उसे जिसने आपके लिए शराब के ठेके खोल दिये हैं। और जो यह सब न कर सकें तो सीता हरण और द्रौपदी के बलात्कार पर हर्ष का अनुभव कीजिये। नीत्शे ने लिखा हैः-“The weak and botched shall perish: first principle of our charity- And one should help them to it.” रहा सीता का प्रश्न, उसकी सद्गति धरती में समा जाने में है। फिर उसपे लाख फूल बरसायें और लाख रामराज्य आये, सीता को न त्रेता का रावण मोह पाया था, न कलयुग का कीचक।

(लेखक बीएचयू से गणित में स्नातक हैं और वर्तमान में ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं। साहित्य में उनकी रुचि है।)

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